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प्राक्कथन
इकत्तीस आचार्य विमलसागर जी महाराज, परमपूज्य १०८ आचार्य भरत सागरजी महाराज, पूज्य १०८ चैत्यसागरजी महाराज की महान् कृपा सेहो चुका है । '
अंत में पूज्य पंडितजी के ही शब्दों में "यह भारत का सौभाग्य रहा कि उसकी चारित्र चक्रवर्ती श्रमणराज आचार्य शांतिसागर महाराज नाम के दिगम्बर जैन महर्षि के रूप में आध्यात्मिक ज्योति प्राप्त हुई थी। उन्होंने श्रेष्ठ अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहादि की समाराधना की थी तथा ३६ दिन पर्यंत आहारपान का परित्याग उच्च अहिंसा की साधना के हेतु कुंथलगिरी की जैन तपोभूमि से १८ सितम्बर १९५५ के सुप्रभात में परलोक यात्रा की थी। वे चन्द्रमा के समान अत्यन्त शीतल थे तथा सूर्य की भाँति तपस्या के तेज से अलंकृत थे । वह आध्यात्मिक ज्योति लोकोत्तर थी जिसमें भानु तथा शशि की विशेषताएं केन्द्रित थीं । उन गुरूदेव के चरणों में शत शत वंदन ।”
१. षष्ठम् प्रकाशन वीनस कम्प्युटर एवं ग्राफिक्स, इन्दौर से प्रकाशित किया गया था । सप्तम् प्रकाशन आ. ज्ञानसागर वागर्थ विमर्श केन्द्र, ब्यावर एवं श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मंदिर संघी जी सांगानेर से प्रकाशित किया गया था। यह आठवाँ संस्करण है जिसे कि श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (धर्म संरक्षिणी) महासभा द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है।
मूल ग्रंथ के
पृष्ठ नये अध्यायों के
अभिनंदन कुमार दिवाकर (एडवोकेट) एम.ए., एल.एल.बी.
इस संस्करण की कुल पृष्ठ संख्या
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पृष्ठ
कॉटेशन (बहुमूल्य वचन) पृष्ठ डिवाईडर पृष्ठ (२० +१८) फोटो पृष्ठ (२५+१)
प्रस्तावना आदि..
चारित्र चक्रवर्ती - एक अध्ययन सल्लेखना के पृष्ठ (आर्ट पेपर)
कुल पृष्ठ = ७३६+३२ (आर्ट)
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