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भारतीय संवतों का इतिहास
पंचांग का विकास
पंचांग का अर्थ "नागरिक जीवन में सुविधा, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, सामाजिक व धार्मिक कार्यों की व्यवस्था के लिये दिनों के सामूहिकीकरण की प्रक्रिया से है " " | पंचांग की आवश्यकता प्रत्येक ऐसी सभ्यता के लिए सर्वमान्य रूप से है जो कृषि, व्यापार तथा घरेलू अथवा अन्य कारणों को नापना चाहती है । भारत में वैदिक युग में पंचांग बनाना आरम्भ हुआ । वेदों, सूत्रों व ब्राह्मण साहित्य से इस संदर्भ के तथ्य उपब्लध होते हैं । भारत में हिन्दी पंचांग विज्ञान के विकास की चार अवस्थायें हैं---
१. वेदांग ज्योतिष का समय
२. वेदांग ज्योतिष से सिद्धान्त ज्योतिष तक का समय
३. आरम्भिक सैद्धान्तिक युग
४. अन्तिम सैद्धान्तिक युग
में समाप्त होता है ।२ ३६६
भारतीय खगोल शास्त्र के मुख्य सिद्धान्तों का विकास वैदिक युग में हुआ साहित्य की एक प्रथक शाखा के रूप में यह विज्ञान रहा । इसी को वेदांग ज्योतिष कहा जाता है । भारत में वेदांग ज्योतिष के समय पंचवर्षीय चक्र का प्रयोग होता था । ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार पंचवर्षीय चक्र जो कि माह के श्वेत अर्द्ध से आरम्भ होता है तथा पूस के कृष्ण पक्ष दिन, १ वर्ष, ६ ऋतुएं, २ आयन, १२ माह सौर्य मानी जानी चाहिये । इन्हें पांच बार गिनने पर एक चक्र बनता है । परन्तु इस व्यवस्था के कुछ दोष थे जिससे इसे त्याग दिया गया, ३०० ई० पूर्व से ३०० ई० तक पंचांग व्यवस्था में कुछ सुधार हुआ तथा सिद्धान्त ज्योतिष का विकास हुआ। ब्राह्मण वर्ष बसंत से, क्षत्रिय ग्रीष्म से व वैश्य पतझड़ से आरम्भ होता था । पश्चिमी भारत के सातवाहन शासकों के गुहा लेख इन्हीं पंचांगों में है । इनकी गणना पद्धतिव
१. 'इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनका', वोल्यूम-तृतीय, टोक्यो (जापान) १९६७,
पृ० ५६५
२. डा० आर० समाशास्त्री, 'वेदांग ज्योतिष', गवर्नमेण्ट ब्रांच प्रेस, मैसूर,
१३६, पृ० २
३. वही, पृ० ३०
४. पी० सी० सेन गुप्त, एंशियेंट इण्डियन क्रोनोलोजी', कलकत्ता यूनीवर्सिटी कलकत्ता, १९४७, पृ० २०६