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संभवतः इन्हीं कारणों से लेखन का ज्ञान होते हुए भी आगम-युग में लेखन कार्य नहीं किया गया। वीर निर्वाण संवत् 827-840 में मथुरा तथा वल्लभी में जो सम्मेलन हुए, उनमें एकादश अंगों को व्यवस्थित किया गया। उस समय आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार-सूत्र की रचना की। उसमें द्रव्यश्रुत के लिए पत्तय पोत्थयलिहिय' शब्द का प्रयोग हुआ है। इससे पूर्व आगम लिखने का प्रमाण नहीं मिलता है। इससे यह पता चलता है कि श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण की 9वीं शताब्दी के अन्त में आगमों के लेखन की परम्परा चली, परन्तु आगमों को लिपिबद्ध करने का स्पष्ट संकेत देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय से मिलता है। इस प्रकार आगम लेखन युग का प्रारंभ हम ईसा की 5वीं शती मान सकते हैं। आगमों की भाषा
जैनागमों की मूल भाषा अर्धमागधी है। यह देववाणी मानी गई है। भगवतीसत्र में गौतम द्वारा यह प्रश्न करने पर कि देव किस भाषा में बोलते हैं? महावीर द्वारा उत्तर दिया गया, देव अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं तथा सभी भाषाओं में अर्धमागधी भाषा श्रेष्ठ व विशिष्ट है।' समवायांग व औपपातिकसूत्र के अनुसार भी तीर्थंकर अर्धमागधी भाषा में उपदेश देते हैं। इसकी व्याख्या करते हुए दशवैकालिकवृत्ति में आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि चारित्र की साधना-आराधना करने के इच्छुक मंद बुद्धि स्त्री-पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए सर्वज्ञ भगवान् आगमों का उपदेश प्राकृत में देते हैं। प्रज्ञापनासूत्र में इस भाषा को बोलने वाले को भाषार्य कहा है। मगध के अर्धभाग में बोली जाने के कारण तथा मागधी व देशज शब्दों के सम्मिश्रण के कारण यह अर्धमागधी कहलाती है। आगमों का वर्गीकरण
विभिन्न जैन परम्पराओं में आगमों का वर्गीकरण भिन्न-भिन्न प्राप्त होता है। (क) समवायांगसूत्र में पूर्वो की संख्या चौदह व अंगों की संख्या बारह बताई गई
है।
(ख) आगमों का दूसरा वर्गीकरण देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय का है। उन्होंने __ आगमों को अंग प्रविष्ट व अंग बाह्य इन दो भागों में विभक्त किया है।2।
अंग प्रविष्ट- अंग प्रविष्ट वह है जो गणधर के द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित, गणधरों द्वारा सूत्र रूप से बनाया हुआ हो तथा ध्रुव व
अचल हो। यही कारण है कि समवायांग व नंदीसूत्र54 में द्वादशांग को ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित व नित्य कहा है।
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन