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हो सकती है कि किसी पुद्गल द्रव्य में कोई गुण प्रकट न हो पर उसके अस्तित्व की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है । इस तथ्य को ग्रंथ 12 में गुड़ (फणी), भ्रमर आदि के उदाहरण द्वारा समझाया गया है कि व्यवहार नय से गुड़ भले ही मधुर गुणवाला तथा भ्रमर काले गुण वाला हो, किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से सभी पदार्थ पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस व आठ स्पर्शवाले हैं । पुद्गल में पाये जाने वाले इन वर्णादि चार गुणों के अवान्तर बीस भेद निम्न हैं ।
वर्ण-वर्ण से तात्पर्य द्रव्य में पाये जाने वाले रंग से है, जो हमें आँखों से दिखाई देता है । इसके मुख्य पाँच प्रकार हैं; काला, नीला, लाल, पीला व सफेद । शेष रंग जो हमें दिखाई देते हैं, वे इन पांच रंगों के समिश्रण से ही बनते हैं ।
गंध - इसका बोध हमें नासिका इन्द्रिय के द्वारा होता है। गंध दो प्रकार की है; सुगंध (चंदनादि से आने वाली गंध) और दुर्गंध (सड़ी वस्तुओं से आने वाली गंध) ।
रस- हमारी जिह्वा द्वारा हमें जिस स्वाद का बोध होता है, वह रस है । रस के पाँच प्रकार हैं; तीखा, कडुआ, कसैला, खट्टा और मीठा ।
स्पर्श - छूने से होने वाली अनुभूति स्पर्श कहलाती है। इसके मुख्य रूप से आठ प्रकार बताये गये हैं; कठोर, कोमल, हल्का, भारी, ठंडा, गरम, चिकना और
रूखा ।
वर्णादि ये चारों गुण परस्पर सम्बद्ध हैं। जिस द्रव्य में वर्ण का कोई भी अवान्तर भेद होगा उसमें रसादि का कोई भी अवान्तर भेद भी अवश्य होगा । अर्थात् कोई भी गुण प्रकट रूप में हमें दिखाई दे या न दे, ये चारों गुण अनिवार्य रूप से पुद्गल में विद्यमान रहते हैं ।
रूपीद्रव्य
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छः द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य ही ऐसा है, जिसे हम देख सकते हैं या महसूस कर सकते हैं। भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने पुद्गल की रूपी अजीवकाय के रूप में प्ररूपणा करते हुए कहा है कि एक पुद्गलास्तिकाय ही रूपी अजीवकाय है, जिस पर कोई भी बैठने, सोने, खड़े रहने, नीचे बैठने, करवट बदलने आदि क्रियायें करने में समर्थ होता है ।
संस्थान
संस्थान से तात्पर्य है आकार या आकृति । भगवतीसूत्र में पुद्गल की परिभाषा में वर्णादि गुणों का ही उल्लेख किया गया है । वहाँ उसके संस्थान का
रूपी अजीवद्रव्य (पुद्गल)
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