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पुरुषार्थ की सीमा को स्पष्ट करते हुए यह बताने का प्रयास किया गया है कि कुछ कर्म अपरिवर्तनीय है जैसे निकाचित कर्म। साथ ही संक्रमण के भी कुछ अपवाद हैं- आयुष्यकर्म की चार उत्तर प्रकृतियों तथा दर्शनमोहनीय व चारित्रमोहनीय का भी परस्पर संक्रमण नहीं होता है। इस प्रकार ग्रंथ में यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि कर्म व पुरुषार्थ सापेक्ष हैं, दोनों की अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। कर्म सर्वशक्तिमान नहीं हैं, पुरुषार्थ द्वारा उसमें परिवर्तन संभव है तथा पुरुषार्थ भी सब कुछ नहीं कर सकता क्योंकि कुछ ऐसे (निकाचित) कर्म हैं, जिनमें पुरुषार्थ द्वारा परिवर्तन संभव नहीं है। कहीं कर्म बलवान है तो कहीं पुरुषार्थ । कर्म परिवर्तन
कर्मप्रकृति में होने वाले परिवर्तन को ग्रंथ में असंवृत व संवृत अनगार के प्रसंग द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया गया है- 'असंवत अनगार आयुकर्म को छोड़कर शेष शिथिलबंधन से बद्ध सात कर्मप्रकृतियों को गाढ़बंधन से बद्ध करता है; अल्पकालीन स्थिति वाली कर्म-प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है; मन्द अनुभाग वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाग वाली करता है; अल्पप्रदेश वाली प्रकृतियों को बहुत प्रदेश वाली करता है और आयुकर्म को कदाचित् बाँधता है, एवं कदाचित् नहीं बांधता; असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपार्जन करता है; तथा अनादि अनवदग्र, अनन्त दीर्घमार्ग वाले चतुर्गतिसंसाररूपी अरण्य में बारबार परिभ्रमण करता है। संवृत अनगार आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष गाढ़बंधन से बद्ध सात कर्म-प्रकृतियों को शिथिलबंधनबद्ध कर देता है; दीर्घकालिक स्थिति वाली कर्मप्रकृतियों को थोड़े काल की स्थिति वाली कर देता है, तीव्ररस (अनुभाव) वाली प्रकृतियों को मन्द रस वाली कर देता है; बहु प्रदेश वाली प्रकृतियों को अल्पप्रदेश वाली कर देता है, और आयुष्य कर्म को नहीं बाँधता। वह असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता, अनादि-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चतुर्गतिकरूप संसार-अरण्य का उल्लंघन कर जाता है।' पुनर्जन्म
जैनधर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है। जिन कर्मों का फल इस जन्म में प्राप्त नहीं होता उसके भोग के लिए पुनर्जन्म को स्वीकार करना आवश्यक है। भगवतीसूत्र में कहा है जीव अपने अध्यवसाय योग (अध्यवसायरूप मन आदि के व्यापार) से निष्पन्न करणोपाय (कर्मबंध के हेतु) द्वारा परभव की आयु बाँधते हैं।50 आचारांग:1 में भी कहा गया है कि जीव अपने ही प्रमाद के कारण अनेक जन्म
कर्म सिद्धान्त
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