________________
1. प्रकृतिबंध, 2. प्रदेशबंध, 3. अनुभागबंध, 4. स्थितिबंध
प्रदेशबंध- लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ कर्म पुद्गल वर्तमान नहीं हैं। प्राणी कषाय व योग के माध्यम से कर्मबंध करता है। एकेन्द्रिय जीव व्यवघात न होने पर छ: दिशाओं से कर्म ग्रहण करते हैं। व्यवघात होने पर कभी तीन, कभी चार व कभी पाँच दिशाओं से कर्म ग्रहण करते हैं। शेष जीव नियम से सर्व दिशाओं से कर्म ग्रहण करते हैं। किन्तु, क्षेत्र के संबंध में मर्यादा है। आत्मा देहव्यापी है अत: जितने क्षेत्र या प्रदेश में आत्मा विद्यमान रहती है, उतने ही प्रदेश में विद्यमान परमाणु उसके द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। गृहीत कर्म पुद्गलों का आत्मा के प्रदेशों के साथ बद्ध होना प्रदेशबंध है। प्रदेशबंध में आत्मा व कर्मपुद्गल नीरक्षीरवत् एक हो जाते हैं- जीवा य पोग्गला य अन्नमनबद्धा अन्नमनपुट्ठा अन्नमनमोगाढा....चिट्ठन्ति - (व्या. सू., 1.6.26)।
प्रकृतिबंध- योगों की प्रवृत्ति द्वारा ग्रहण किये गये कर्म परमाणु द्वारा ज्ञान को आवृत करना, दर्शन को आच्छन्न करना आदि अनेक रूपों में परिणत होना प्रकृतिबंध है। प्रदेशबंध कर्म परमाणुओं के परिमाण को इंगित करता है जबकि प्रकृतिबंध कर्म परमाणुओं की प्रकृति या स्वभाव को स्पष्ट करता है। प्रदेशबंध व प्रकृतिबंध दोनों योगों की प्रवृत्ति से होते हैं। ये निर्बल, अस्थाई व संसार को बढ़ाने वाले नहीं होते हैं।
स्थितिबंध- प्रत्येक कर्म आत्मा के साथ एक निश्चित समय तक ही रहता है। स्थिति पकने पर वह आत्मा से अलग हो जाता है। अर्थात् कर्म पुद्गल राशि कितने काल तक आत्मा के प्रदेशों में रहेगी यह उसका स्थितिबंध है। इसमें योगों के साथ कषाय की भी प्रवृत्ति होती है।
अनुभागबंध- जीव द्वारा ग्रहण की हुई शुभ-अशुभ कर्मों की प्रकृतियों का तीव्र, मन्द आदि विपाक अनुभागबंध है। भगवतीवृत्ति+5 में कहा गया है कि उदय आने पर कर्म का अनुभव तीव्र है या मन्द यह कर्मबंध के समय ही नियत हो जाता है। इसे अनुभागबंध कहते हैं। उदय आने पर कर्म अपनी मूल प्रकृतियों के अनुसार ही फल देता है। किन्तु, उत्तरप्रकृतियों पर यह नियम लागू नहीं होता है। मंदरस वाला कर्म तीव्ररस वाले कर्म में बदल जाता है। तीव्ररस वाला कर्म मंदरस वाले कर्म में बदल जाता है। इसे ग्रंथ में इस प्रकार स्पष्ट किया है- कितने ही प्राणी एकान्त दुःख रूप वेदना वेदते हैं, कदाचित् सातारूप वेदना भी वेदते हैं, एकान्त सातारूप वेदना वेदते हैं, कदाचित् असातारूप वेदना भी वेदते हैं तथा
कर्म सिद्धान्त
285