Book Title: Bhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Author(s): Tara Daga
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 315
________________ होता है। अकाम निर्जरा के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि दीर्घकाल तक घोर नरक में पड़ा नारक जीव कोटा-कोटी वर्षों तक भी उन कर्मों का क्षय नहीं कर सकता है, जिनका क्षय श्रमण अपने तप द्वारा अल्पकाल में ही कर देता है। जैसे तपे हुए लोहे की कढ़ाई में डाली गयी पानी की बूंद तथा अग्नि में डाला गया सूखा घास शीघ्र नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार (तप साधना द्वारा) श्रमण के यथाबादर कर्म भी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ।58 वेदना व निर्जरा का संबंध वेदना व निर्जरा पृथक्-पृथक् हैं। भगवतीसूत्र के छठे शतक में चतुर्भंगी के निरूपण द्वारा वेदना व निर्जरा के पृथक्त्व को इस प्रकार समझाया है- वेदना कर्म है, निर्जरा नोकर्म है। कर्म को वेदते हैं और नोकर्म को निर्जीर्ण करते हैं। जिस समय कर्म का वेदन करते हैं, उस समय निर्जरा नहीं करते हैं तथा जिस समय निर्जरा करते हैं उस समय वेदन नहीं करते हैं वेदना का समय दूसरा होता है तथा निर्जरा का समय दूसरा होता है। प्रतिमा धारक अनगार महावेदना व महानिर्जरा वाला होता है। छठी-सातवीं नरक पृथ्वियों वाले जीव महावेदना व अल्पनिर्जरा वाले होते हैं। शैलेषी अवस्था को प्राप्त अनगार अल्पवेदना तथा महानिर्जरा वाला, अनुत्तरौपपातिक देव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं। अन्तक्रिया जिस क्रिया के पश्चात् अन्य कोई क्रिया करना शेष न रहे, उसे अन्तक्रिया कहते हैं। भगवतीसूत्र में कहा गया है कि जब तक जीव में किसी भी प्रकार की सूक्ष्म या स्थूल क्रिया (स्पन्दन, क्षुब्ध, उदीरत आदि) है तब तक जीव की अन्तक्रिया संभव नहीं है। क्योंकि इन सूक्ष्म व स्थूल क्रियाओं के कारण जीव आरंभ, सारंभ करता है, बहुत से प्राणियों को दुःख, परिताप, कष्ट आदि पहुँचाने में प्रवृत्त होता है। अतः इन क्रियाओं से कर्मबंध होते रहते हैं। इसके विपरीत जब जीव में सूक्ष्म या स्थूल कोई क्रिया नहीं होगी तब आरंभ-सारंभ भी नहीं होगा। जीव अन्य प्राणियों को परिताप, दुःख, कष्ट आदि पहुँचाने में भी प्रवृत्त नहीं होगा। ऐसी स्थिति में अन्तक्रिया होगी। सूखा घास अग्नि में डालने से तुरंत जल जाता है, तपे हुए लोहे के कड़ाह पर डाली हुई पानी की बूंद तुरंत नष्ट हो जाती है, इसी प्रकार क्रिया रहित व्यक्ति के कर्म भी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। जब वह आत्मसंवृत अनगार उपयोगपूर्वक कोई भी क्रिया करता है तब कर्म के आस्रव द्वारों को बंद कर देता है, ऐसे में उसे सिर्फ ऐर्यापथिक क्रिया लगती है, जो अत्यन्त अल्प समय कर्म सिद्धान्त 289

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