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इस विभाजन में इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष में स्थान दिया गया है क्योंकि जैन मतानुसार आत्मसापेक्ष ज्ञान को ही प्रत्यक्ष ज्ञान माना गया है जबकि सभी जैनेतर दार्शनिकों ने इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष में स्थान दिया है। स्थानांग में वर्णित ज्ञान का यह विभाजन भगवतीसूत्र में वर्णित विभाजन का विकसित रूप प्रतीत होता है। यहाँ पाँचों ज्ञान को प्रत्यक्ष व परोक्ष के प्रभेद के रूप में गिनाया गया है। बाद के जैनाचार्यों ने इसी के आधार पर ज्ञान का विभाजन किया है। यह विभाजन इस प्रकार है;
ज्ञान
प्रत्यक्ष
परोक्ष
केवल
नोकेवल
आभिनिबोधिक
श्रुतज्ञान
अवधि
मन:पर्यव
अंगप्रविष्ट
अंगबाह्य
भवप्रत्ययिक
क्षायोपशमिक ऋजुमति विपुलमति
आवश्यक आवश्यकव्यतिरिक्त
कालिक
उत्कालिक
श्रुतनिःसृत
अश्रुतनिःसृत
अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह तृतीयभूमिका- ज्ञान-विभाजन की तृतीय भूमिका में लौकिक मान्यता के साथ कुछ और परिवर्तन हुए। यहाँ इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों में स्थान दिया गया है। यह भूमिका नंदीसूत्र में ज्ञान चर्चा में मिलती है। यह विभाजन इस प्रकार है
ज्ञान एवं प्रमाण विवेचन
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