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वैनयिकी- गुरु आदि की विनय-भक्ति से उत्पन्न बुद्धि वैनयिकी है। कर्मजा- शिल्पादि के निरन्तर अभ्यास से उत्पन्न बुद्धि कर्मजा होती है।
पारिणामिकी- चिरकाल तक पूर्वापर पर्यालोचन से अथवा उम्र के परिपाक से जो बुद्धि उत्पन्न होती है, उसे पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं।
श्रुतनिश्रितमतिज्ञान चार प्रकार का है- 1. अवग्रह, 2. ईहा, 3. अवाय, 4. धारणा।
अवग्रह- जो ज्ञान नाम, जाति, विशेष्य, विशेषण आदि विशेषताओं से रहित मात्र सामान्य को जानता है, वह अवग्रह कहलाता है। अवग्रह के पुनः दो भेद किये गये हैं; 1. अर्थावग्रह, 2. व्यंजनावग्रह।
ईहा- छानबीन के बाद असत् को छोड़कर सत् रूप को ग्रहण करना ईहा का कार्य है।
अवाय- निश्चयात्मक या निर्णयात्मक ज्ञान को अवाय कहते हैं।
धारणा- जब अवायज्ञान अत्यन्त दृढ़ हो जाता है, उसे धारणा कहते हैं। श्रुतज्ञान
मतिज्ञान के पश्चात् जो चिन्तनमनन के द्वारा परिपक्व ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान के लिए शब्द श्रवण आवश्यक है। वस्तुतः आप्त पुरुषों द्वारा रचित आगम व अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। नन्दीसूत्र में इसके 14 भेद किये गये हैं। तीन अज्ञान ___ भगवतीसूत्र' में ज्ञान के पाँच भेदों के अतिरिक्त तीन प्रकार के अज्ञान की भी चर्चा प्राप्त होती है; 1. मतिअज्ञान (मिथ्यामतिज्ञान) 2. श्रुतअज्ञान (मिथ्याश्रुतज्ञान) 3. विभंगज्ञान (मिथ्याअवधि-ज्ञान)। ज्ञान व दर्शन
जीव का लक्षण उपयोग है। उपयोग के दो भेद हैं- साकारोपयोग और अनाकारोपयोग । ग्रन्थ में साकारोपयोग को दर्शन व निराकारोपयोग को ज्ञान कहा गया है।अनाकार का अर्थ निर्विकल्पक व साकार का अर्थ सविकल्पक है। जो उपयोग सामान्य का ग्रहण करता है, वह निर्विकल्पक है। जो विशेष को ग्रहण करता है वह सविकल्पक है।
भगवतीसूत्र-1 में ज्ञान व दर्शन दोनों को ही आत्मस्वरूप माना है। ग्रंथ में ज्ञान के लिए 'जाणइ' व दर्शन के लिए पासइ' शब्द का प्रयोग हुआ है। ज्ञान व दर्शन युगपत् होते हैं या नहीं इस बात की विवेचना करते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया
ज्ञान एवं प्रमाण विवेचन
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