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है कि ज्ञान व दर्शन युगपत् नहीं होते हैं। इसे उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है। परमअवधिज्ञानी या केवलज्ञानी जिस समय परमाणु - पुद्गल को जानता है, उसी समय देखता नहीं है तथा जिस समय देखता है, उसी समय जानता नहीं है। ज्ञान साकार व दर्शन निराकार होता है, और परस्पर विरुद्ध दो धर्म वालों का एक ही काल में एक ही स्थान में होना संभव नहीं होता अतः ज्ञान व दर्शन दोनों की क्रिया एक ही समय में नहीं होती है । आवश्यकनिर्युक्ति में भी कहा गया है कि केवली के दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते हैं । दिगम्बर परम्परा 24 केवली में ज्ञान व दर्शन दोनों को युगपत स्वीकार करती है ।
प्रमाण
जैन-दर्शन में ज्ञान के साथ प्रमाण की चर्चा भी जुड़ी हुई है । पाँचों ज्ञान में से कौनसा ज्ञान प्रमाण है, कौनसा ज्ञान अप्रमाण यह प्रमाण के स्वरूप को समझने के पश्चात् ही निश्चित किया जा सकता है । प्रमाण शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ हैप्रमीयते येन तत्प्रमाणम् अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान हो वह प्रमाण है । प्रमाण समग्र वस्तु को अखण्डरूप से ग्रहण करता है । वह भले ही किसी एक गुण द्वारा पदार्थ को जानने का उपक्रम करे, परन्तु उस गुण के द्वारा वह सम्पूर्ण वस्तु को ही ग्रहण करता है । इसीलिए प्रमाण को सकलादेशी कहा गया है 125 प्रमाण की परिभाषा व स्वरूप
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जैन ग्रंथों में प्रमाण की विभिन्न परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं । आचार्य उमास्वाति ने ज्ञान को ही प्रमाण कहा है 26 । जैन न्याय के प्रस्थापक आचार्य अकलंक के अनुसार प्रमाण ज्ञान वही होता है जो अविसंवादी हो एवं अज्ञात अर्थ को जानने वाला हो । 27 आचार्य विद्यानन्द ने प्रमाण को परिभाषित करते हुए कहा है कि पदार्थ का यथार्थ निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण है । यह प्रमाण का लक्षण पर्याप्त है । अन्य सभी विशेषण व्यर्थ हैं । 28 आचार्य सिद्धसेन 29 ने स्व और पर को प्रकाशित करने वाले अबाधित ज्ञान को प्रमाण कहा है। आचार्य हेमचन्द्र ने जैन प्रमाण की अन्तिम व परिष्कृत परिभाषा इस प्रकार दी है- अर्थ का सम्यक् निर्णय प्रमाण है 130
उपर्युक्त परिभाषाओं से प्रमाण का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। वस्तुत: जैन परम्परा ज्ञान को ही प्रमाण मानती है । विपर्यय आदि प्रमाण न हो जाय अत: अबाधित शब्द का प्रयोग भी जैनाचार्यों ने किया है। दूसरे शब्दों में जैनाचार्यों के अनुसार वही ज्ञान प्रमाण हो सकता है जो निश्चयात्मक हो, व्यवसायात्मक हो, निर्णयात्मक हो, सविकल्पक हो । 31
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन