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श्रावकाचार पर विस्तार से वर्णन है । इसमें आनंद श्रावक भगवान् महावीर से पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत व बाद में ग्यारह प्रतिमाओं को ग्रहण करता है । दशाश्रुतस्कन्ध
श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन है । आगमोत्तरकालीन साहित्य तत्त्वार्थसूत्र' में बारह श्रावक व्रतों का निरूपण किया गया है । पश्चात् में जैनाचार्यों द्वारा श्रावक के व्रताचार पर स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे गये हैं ।
भगवतीसूत्र में श्रावकाचार
भगवतीसूत्र में उपासकदशांग की तरह श्रावक की आचार -चर्या का विस्तार से प्रतिपादन नहीं है । किन्तु, तुंगिकानगरी के श्रमणोपासकों की दैनिक चर्या का संक्षिप्त विवरण श्रावकाचार की क्रमबद्ध प्रक्रिया को समझने के लिए पर्याप्त है । इसके अतिरिक्त विभिन्न श्रावकों के प्रकरण व कथानकों के माध्यम से श्रावक के व्रताचार पर प्रकाश पड़ता है। शंख श्रावक के प्रकरण में पौषधव्रत की विधि व फल का वर्णन है । सोमिल ब्राह्मण के प्रसंग में श्रावक के बारह व्रतों का उल्लेख है । इसी प्रकार ग्रंथ में ऋषिभद्र श्रमणोपासक" मद्रुक श्रावक 12 कार्तिक श्रेष्ठी श्रावक आदि के प्रकरण वर्णित हैं। श्रावक के अतिरिक्त ग्रंथ में उत्पला श्राविका 14 जयन्ती श्राविका 15 आदि के प्रकरण भी वर्णित हैं । जयन्ती श्राविका जीव- अजीव आदि तत्त्वों की ज्ञाता थी तथा वह भगवान् महावीर के श्रमणों को शय्या उपलब्ध कराने के लिए प्रसिद्ध थी । भगवतीसूत्र में उसके लिए 'पुव्वसेज्जायरी' शब्द का प्रयोग हुआ है ।
तुंगिकानगरी के श्रमणोपासक "
भगवतीसूत्र के दूसरे शतक में वर्णित तुंगिकानगरी के श्रमणोपासकों की जीवनचर्या श्रावकधर्म का जीवन्त चित्र उपस्थित करती है । 'वे जीव और अजीव, पुण्य और पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के विषय में कुशल थे । वे (किसी भी कार्य में दूसरों से) सहायता की अपेक्षा नहीं रखते थे। निर्ग्रथ प्रवचन में इतने दृढ़ थे कि देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवगणों के द्वारा निर्ग्रथप्रवचन से विचलित नहीं किये जा सकते थे। वे निर्ग्रथ प्रवचन के प्रति निःशंकित थे, निष्कांक्षित थे तथा विचिकित्सारहित ( फलाशंकारहित ) थे। उन्होंने शास्त्रों के अर्थों को भलीभांति उपलब्ध कर लिया था । उनकी हड्डियाँ और मज्जाएँ (नसें) निर्ग्रथप्रवचन के प्रति प्रेमानुराग में रंगी हुई थीं । उनके घर के द्वार याचकों के लिए सदैव खुले रहते थे। वे शीलव्रत ( शिक्षाव्रत ), गुणव्रत, विरमणव्रत (अणुव्रत),
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श्रावकाचार
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