Book Title: Bhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Author(s): Tara Daga
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 305
________________ को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है। भगवतीसूत्र में कर्म को योग व कषाय से होने वाला बंध माना है। कर्म का कर्ता व भोक्ता जीव को मानते हुए कहा है- जीव का दुःख (कर्म) आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं। जीव आत्मकृत वेदना वेदते हैं, परकृत या उभयकृत नहीं।' जीव के कर्मों को आत्मकृत बताते हुए पुनः कहा गया है कि सभी जीवों के कर्मोपचय प्रयोग से (स्वप्रयत्न) से होता है, विनसा (स्वाभाविक रूप से नहीं होता है। कांक्षामोहनीय कर्म की चर्चा में कहा गया है कि कांक्षामोहनीय कर्म स्वकृत है, जीव अपने आप से ही उसकी उदीरणा करता है, गर्दा करता है, संवर करता है व निर्जरा करता है। इस प्रकार भगवतीसूत्र में आये उक्त सभी उल्लेख जीव को कर्मों का कर्ता स्वीकार करते हैं। जीव को कर्मों के कर्ता के साथ-साथ कर्मफल का भोक्ता भी माना है। जीव स्वकृत दुःख (कर्म) भोगते हैं। उदीर्ण को भोगते हैं, अनुदीर्ण को नहीं। पापकर्मफल भोगे बिना नारक, तिर्यंच, मनुष्य व देव को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। कर्मों के कर्तृत्व व भोक्तृत्व को स्पष्ट करते हुए पुनः आगे कहा गया है कि कर्मों के उदय से, गुरुता से, भारीपन से, अत्यन्त गुरुता व भारीपन से, अशुभ कर्मों के उदय, विपाक व परिपाक के कारण जीव स्वयं विभिन्न योनियों में उत्पन्न होता है। __उक्त विवेचन में जीव को कर्मों का कर्ता व भोक्ता मानने से यह तात्पर्य नहीं है कि जीव कर्म (पुद्गल) का निर्माता है। पुद्गल तो पहले से ही वर्तमान हैं, संसारी जीव अपने सन्निकट में स्थित पुद्गल परमाणुओं को अपनी प्रवृत्तियों से आकृष्ट कर अपने में मिलाकर नीरक्षीरवत् एक कर देता है। यही द्रव्य कर्मों का कर्तृत्व है और जीव जब पुद्गल परमाणुओं को कर्म में परिणत करता है तब वह कर्मफल का भोक्ता भी सिद्ध हो जाता है। जीव व कर्मबंध ___ कर्म जीव बांधते हैं। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जीव अमूर्त है व कर्म मूर्त है, फिर अमूर्त जीव का मूर्त कर्म से संबंध कैसे होता है? भगवतीवृत्तिा में कहा गया है कि वास्तव में संसारी आत्मा रूपी है उसी को कर्म लगते हैं। इसलिए आत्मा और कर्म का संबंध अरूपी और रूपी का संबंध नहीं है, वरन रूपी का रूपी के साथ संबंध है। इस दृष्टि से संसारी आत्मा कर्मों का कर्ता है, उसके किये बिना कर्म नहीं लगते। भगवतीसूत्र में अभेदोपचार से पुद्गल युक्त इन्द्रिय को धारण करने के कारण संसारी जीव को पुद्गल व पुद्गली दोनों कहा है- जीवे कर्म सिद्धान्त 279

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