Book Title: Bhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Author(s): Tara Daga
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 304
________________ जैनागमों में कर्म का विवेचन आगमोत्तर युग में कर्मवाद पर अनेक स्वतंत्र ग्रंथ लिखे गये। किन्तु, उनके मूल बीज जैनागमों में सुरक्षित हैं। आचारांग, स्थानांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, प्रज्ञापना आदि ग्रंथों में कर्मवाद की मूल भित्तियों को चित्रित करने का प्रयास किया गया है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि मन, वचन व काया की प्रवृत्तियाँ कर्मबंधन का हेतु है। कामभोगों में आसक्तजन कर्मों का संचय करते रहते हैं और पुनः पुनः जन्म धारण करते हैं। अतः कर्मों को तोड़कर तुम कर्मरहित (मुक्त) हो जाओ। सूत्रकृतांग में कर्म व फल के पारस्परिक संबंध को व्यक्त करते हुए कहा है कि व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसी के अनुसार भावी जन्म मिलता है। स्थानांगसूत्र में पाँच आस्रवद्वार, शुभ एवं अशुभ कर्मबंध के नौ कारण, चार प्रकार के कर्मबंध आदि का विवेचन है। समवायांग' में भी कर्म सिद्धान्त के कुछ पहलु- पाँच आस्रव द्वार, पाँच निरोधद्वार, चौदह गुणस्थान आदि का वर्णन हुआ है। विपाकसूत्र में दुष्कृत्य के कटु परिणामों व सुकृत्य के अच्छे परिणामों को कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत कर कर्मसिद्धान्त का सम्यक् रूप से प्रतिपादन किया गया है। प्रज्ञापना उपांग के पाँच अध्यायों में कर्मवाद को व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इनमें आठ मूलप्रकृतियाँ, उत्तरप्रकृतियाँ, कर्मवेदन, कर्मबंध की प्रकिया, कारण, स्थिति आदि पर विचार किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र के कर्मप्रकृति नामक अध्याय में कर्मवाद पर विवेचन मिलता है। कर्म के आधारभूत कारण लेश्यादि के स्वरूप पर भी इसमें विस्तृत विवेचन हुआ है। भगवतीसूत्र में कर्मसिद्धान्त भगवतीसूत्र में अन्य जैनागमों की तरह कर्मसिद्धान्त पर व्यवस्थित विवेचन नहीं मिलता है। यह ग्रंथ प्रश्नोत्तर शैली में लिखा गया है। जब भी जिज्ञासुओं ने भगवान् महावीर से कर्म संबंधी प्रश्न पूछे, श्रमण भगवान् महावीर द्वारा उनका उत्तर दिया गया। इसी रूप में ग्रंथ में कर्म संबंधी विवेचन उपलब्ध है। लेकिन इस समस्त सामग्री का अध्ययन करने के पश्चात् यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कर्म सिद्धान्त के मूल बीज इस ग्रंथ में मौजूद थे, जिन्हें परवर्ती आचार्यों ने अपनी प्रखर प्रतिभा से विकसित व पल्लवित किया और एक विशद कर्म संबंधी साहित्य की रचना की। अन्य जैनागमों की तरह भगवतीसूत्र में भी 'कर्म' की कोई व्यवस्थित परिभाषा विवेचित नहीं है। कर्म संबंधी प्रश्नों के आधार पर ही कर्म के मूल स्वरूप 278 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन

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