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पोग्गली वि पोग्गले वि - ( 8.10.59 ) । इसी प्रकार पुद्गल मूर्त व जड़ होते हैं, किन्तु आत्मा के साथ संयुक्त होने पर कथंचित् चेतनरूप कहे जाते हैं । इसे ग्रंथ में जीव व शरीर के संबंध द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा गया है- शरीर आत्मा भी है तथा अन्य (पुद्गल) रूप भी है। रूपी भी है, अरूपी भी है। सचित्त भी है, अचित्त भी है। 16
भगवतीसूत्र के अनुसार नूतन कर्मबंधन का कारण पहले का कर्मबंध है। दूसरे शब्दों में संसारी ( कर्मबद्ध ) आत्मा ही कर्मों से बंधता है, मुक्त नहीं । भगवतीसूत्र” के सातवें शतक में कहा है दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है, अदुःखी जीव, दुःख से स्पृष्ट नहीं होता है । अर्थात् दुःख ही दुःख का ग्रहण, उदीरणा, वेदन व निर्जरा करता है । यहाँ दुःखी से तात्पर्य कर्मबद्ध जीव से है । अन्यथा तो सिद्ध (कर्मरहित) कर्मबंध कर लेते। छठे शतक के तीसरे उद्देशक में भी इसी बात पर बल देते हुए कहा गया है महाकर्म, महाक्रिया, महाआस्रव व महावेदना वाले सर्वतः तथा सतत् (कर्म) पुद्गलों का बंध, चय, उपचय तथा उनका अशुभ परिणमन करते हैं । 18 प्रज्ञापनासूत्र " में भी कहा गया है कि अकर्म से कर्म का बंधन नहीं होता । जो जीव पहले से ही कर्मों से बद्ध है वह नये कर्मों को बांधता है। भगवतीसूत्र में गौतम गणधर द्वारा यह पूछने पर कि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बंधन कौन करता है ? भगवान् उत्तर देते हैं- संयत, असंयत अथवा संयतासंयत सभी कर्म बांधते हैं 20 | ग्रंथ में आये ये संवाद स्पष्ट करते हैं कि सकर्मक आत्मा पर ही कर्म का प्रभाव होता है, वही कर्मों का बंध करता है । पुनः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यदि आत्मा व कर्म का यह संबंध अनादि है, कर्मबद्ध आत्मा पुनः नूतन कर्मों का बंध करता है तो जीव कर्ममुक्त कैसे हो सकता है? इसका समाधान करते हुए ग्रंथ में कहा गया है कि संयम व तप के द्वारा नये कर्मों का आस्रव रोका जाता है तथा पुराने कर्मों की निर्जरा होती हैसंजमे किं फले ? अणण्यफले,... तवे वोदाण फले (2.5.6) अर्थात् संयम का फल अनास्रवता है तथा तप का फल व्यवदान (कर्मों का क्षय ) है । ईश्वर, आत्मा व कर्मफल
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भगवतीसूत्र न्यायदर्शन 21 की तरह ईश्वर को कर्मफल का नियन्ता नहीं स्वीकार करता है । भगवतीसूत्र 22 में कहा गया है कि कर्म से ही जीव जगत में विविध परिणामों को प्राप्त होता है, कर्म के बिना विविध रूपों को प्राप्त नहीं होता है। जीवों ने जो कर्म किये हैं, उनका फल इस जन्म में या आगामी जन्म में अवश्य
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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