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भोगना पड़ेगा। कृतकर्म भोगे बिना मुक्ति संभव नहीं है। जैसा व्यक्ति कर्म करता है, उसी रूप में फल की प्राप्ति होती है। ग्रंथ के पाँचवे शतक में कहा गया है कि जो व्यक्ति दूसरों पर झूठ का, अविद्यमान का या मिथ्यादोष का आरोपण करता है, उसके उसी प्रकार के कर्म बंधते हैं। वह जिस योनि में जाता है, वहीं उन कर्मों को वेदता है और वेदन करने के पश्चात् निर्जरा करता है। ग्रंथ में विवेचित जमालि, गोशालक, अभिचिकुमार के जीवन चरित से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि अशुभ कर्मबंधन का फल व्यक्ति को अवश्य भोगना पड़ता है। उत्तराध्ययन में भी आत्मा को ही सुख-दुःख का कर्ता माना गया है।
ईश्वर व कर्मफल के संबंध को अस्वीकार करते हुए देवेन्द्रमुनि शास्त्री लिखते हैं- यदि ईश्वर को कर्मफल का नियंत्रक माना जाय तो यह मानना होगा कि ईश्वर कर्म के अनुसार फल देगा। उनमें तनिक भी परिवर्तन का उसे अधिकार नहीं होगा। ऐसे में तो ईश्वर भी कर्म के अधीन हो जायेगा और दूसरी तरफ यदि ईश्वर को सर्वेसर्वा मान लिया जाय तो कर्म की सत्ता ईश्वर के अधीन हो जायेगी। अतः स्वयं कर्म को ही अपना फल देने वाला माना गया है। पापकर्म व पुण्यकर्म का फल
पापकर्म का फल अशुभ व पुण्यकर्म का फल शुभ होता है। भगवतीसूत्र26 में पापकर्म व पुण्यकर्म के फल को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति अठारह प्रकार के दाल-शाक व्यंजनों से युक्त विषमिश्रित भोजन को सुन्दर थाली में खाता है तो प्रारंभ में तो उसे अच्छा लगता है, किन्तु जैसे-जैसे वह भोजन पचता है तब वह दुर्गंध आदि रूप में खराब परिणाम प्राप्त करता है। उसी प्रकार प्राणातिपात आदि 18 पापस्थानों का सेवन प्रारंभ में तो अच्छा लगता है, किन्तु जब उनके द्वारा बांधे गये पापकर्म उदय में आते हैं तब वे अशुभफलविपाक से युक्त होते हैं। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति 18 प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त औषध-मिश्रित भोजन करता है तब प्रारंभ में चाहे वह भोजन उसे अच्छा नहीं लगता, किन्तु बाद में जब वह भोजन पचता है, उसे सुख का अनुभव होता है। इसी प्रकार प्राणातिपातादि 18 पापस्थानों के त्याग, परिग्रह, विरमण, क्रोध त्याग आदि प्रारंभ में अच्छे नहीं लगते हैं, किन्तु बाद में इनके परिणमन स्वरूप कल्याणकर्म विपाक रूप में उदय में आते हैं और जीव सुख अनुभव करता है। दशाश्रुतस्कन्ध7 में भी कहा गया है कि शुभ कर्म का फल शुभ व अशुभ कर्म का फल अशुभ होता है।
कर्म सिद्धान्त
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