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कर्म सिद्धान्त
जैन दर्शन का मुख्य केन्द्र बिन्दु कर्म सिद्धान्त है। यह नव तत्त्वों को अपने अन्दर समेटे हुए है। जीव, पुद्गल, आस्रव, बंध, पाप, पुण्य, संवर, निर्जरा, मोक्ष- ये नव तत्त्व कर्मसिद्धान्त में ही समाहित हो जाते हैं। यद्यपि जैनेतर दर्शनों ने भी कर्म सिद्धान्त पर विवेचन किया है, किन्तु जैन परंपरा ने कर्मसिद्धान्त का जैसा तर्कसंगत व वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया है, वैसा अन्य किसी दर्शन में प्राप्त नहीं होता है। वस्तुतः कर्म सिद्धान्त जैन तीर्थंकरों की एक अपूर्व, अनुपम व सर्वोत्कृष्ट भेंट है, जिसके व्यावहारिक उपयोग से व्यक्ति स्वयं पुरुषार्थ द्वारा अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। कर्म का अर्थ व स्वरूप
कर्म शब्द का शाब्दिक अर्थ कार्य, प्रवृत्ति या क्रिया है। किन्तु, जैन परंपरा में कर्म शब्द विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कर्मग्रंथ में जीव की क्रिया के हेतु को कर्म कहा गया है। कर्म सिद्धान्त में कर्म का तात्पर्य वे पुद्गल-परमाणु या कर्मवर्गणाएँ हैं, जो योग की क्रियाओं के परिणामस्वरूप आत्मा की ओर आकर्षित होकर आत्मा के साथ बंध जाती हैं। कालक्रम में अपना फल प्रदान करती हैं तथा आत्मा में विशिष्ट भाव उत्पन्न करती हैं। कर्म और प्रवृत्ति के कार्य और कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए पुद्गल-परमाणुओं के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म
और राग, द्वेष आदि प्रवृत्तियों को भावकर्म कहा गया है। इस तरह कर्म के मुख्य रूप से दो भेद हुए; द्रव्य कर्म व भावकर्म। द्रव्यकर्म के होने में भावकर्म और भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म कारण है। वृक्ष से बीज व बीज से वृक्ष की तरह द्रव्यकर्म से भावकर्म व भावकर्म से द्रव्यकर्म की परंपरा भी अनादि है। जैन परंपरा में जीव व कर्म का संबंध भी अनादि माना गया है। मन, वचन व काया की प्रवृत्ति से जीव कर्मबद्ध होता है और जब जीव कर्मबद्ध होता है तभी मन, वचन व काया की प्रवृत्ति होती है।
कर्म सिद्धान्त
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