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श्रावकाचार
जैनागम ग्रंथों में श्रमण की आचार एवं चर्या के साथ-साथ श्रावक (गृहस्थ) की दैनिक चर्या एवं साधना के लिए भी कुछ नियमों का विधान हुआ है। जैन शास्त्रों में गृहस्थ के सामाजिक एवं आध्यात्मिक शोधन हेतु पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं पाँच शिक्षाव्रतों का उल्लेख मिलता है। इन नियमों के विधान द्वारा जैन आचारसंहिता में जहाँ एक ओर गृहस्थ के आचरण को परिष्कृत करने का प्रयास किया गया है, वहीं दूसरी ओर परिग्रह, हिंसा जैसी समाज विरोधी वृत्तियों को भी नियंत्रित करने की कोशिश हुई है। वस्तुतः जैन श्रावकाचार संहिता व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ स्वस्थ समाज के निर्माण में भी सहायक है। श्रावक शब्द का अर्थ एवं स्वरूप
श्रावक के लिए जैनागम ग्रंथों में सागार, श्रमणोपासक, उपासक, आगारिक, अगार आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। उपासकदशांग श्रावकधर्म का प्रतिनिधि ग्रंथ है। इस ग्रंथ में गृहस्थधर्म के लिए गिहिधम्म, सावयधम्म, अगारधम्म, उवासगधम्म तथा श्रावक के लिए श्रमणोपासक, उपासक, गिहि, अगार, सावय आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। भगवतीसूत्र में श्रावक के लिए श्रमणोपासक, उपासक, सावय आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। उमास्वाति ने श्रावकप्रज्ञप्ति में श्रावक शब्द पर विचार करते हुए कहा है कि जो सम्यग्दृष्टि साधुओं के पास उत्कृष्ट समाचारी श्रवण करता है, वह श्रावक है। वस्तुतः जो दान, तप व शील भाव की आराधना करते हुए शुभयोगों से आठ प्रकार के कर्म की निर्जरा करता है, श्रमणों के समीप समाचारी का श्रवण कर उसी प्रकार का आचरण करने का प्रयत्न करता है, वह श्रावक है।
श्रावक शब्द के उक्त अर्थ से श्रावक की आचार-चर्या के संबंध में जानकारी प्राप्त हो जाती है। विभिन्न जैनागमों में श्रावक की आचार-चर्या आदि के विषय में विवचेन प्राप्त होता है। स्थानांगसूत्र में श्रावक के तीन मनोरथों का चिन्तन हुआ है। समवायांगसूत्र में ग्यारह प्रतिमाओं के नाम मिलते हैं। उपासकदशांगसूत्र में
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन