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हुई, गिरी हुई, भूली हुई वस्तु को और बिना दिये हुए धन को न तो स्वयं लेता है न उठाकर दूसरों को देता है, उसे अचौर्याणुव्रतधारी कहते हैं।
ब्रह्मचर्य अणुव्रत- ब्रह्मचर्य अणुव्रत का सामान्य अर्थ अब्रह्म का सेवन न करना है। उपासकदशांग28 में अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों से मैथुन सेवन करना अब्रह्म का स्वरूप माना गया है। आचार्य कुंदकुंद ने पर-महिला से मैथुन सेवन करना अब्रह्म माना है। आवश्यकसूत्र में एक मात्र अपनी पत्नी में संतोष कर इसके अतिरिक्त सब प्रकार के मैथुन के त्याग को ब्रह्मचर्य अणुव्रत माना है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य अणुव्रत में श्रावक कामवासना से पूर्ण-निवृत्त तो नहीं होता है परन्तु संयमित हो जाता है।
अपरिग्रह अणुव्रत- 'जहा लाहो तहा लोहो' उत्तराध्ययन की यह उक्ति परिग्रह का मूल है उपासकदशांगसूत्र में अपरिमित इच्छा शक्ति को ही परिग्रह का कारण माना है। सर्वार्थसिद्धि में 'यह वस्तु मेरी है', व्यक्ति के इस प्रकार के ममत्व को परिग्रह कहा है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार34 में धन्य-धान्यादि का परिग्रह परिमाण करके उससे अधिक में निःस्पृह रहने को परिमित परिग्रहव्रत कहा है। गुणव्रत
अणुव्रतों को परिपुष्ट व उन्नत बनाने के लिए श्रावक की आचार संहिता में गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों का भी विधान किया गया है। ये व्रत व्यक्ति को नियमित, संयमित कर त्याग व दान की ओर प्रेरित करते हैं। अणुव्रतों के पालन में जो कठिनाईयाँ आती हैं उन्हें गुणव्रत दूर करते हैं। अणुव्रतों के गुणों की रक्षा व विकास करने वाले होने के कारण ही इन्हें गुणव्रत कहा गया है। गुणव्रतों की संख्या तीन मानी गई है; 1. दिग्वत, 2. उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत, 3. अनर्थदण्डविरमणव्रत।
दिग्व्रत- रत्नकरण्डकश्रावकाचार में इसके स्वरूप को बताते हुए कहा है कि दसों दिशाओं की मर्यादा करके सूक्ष्म पापों की निवृत्ति के लिए 'मैं इससे बाहर नहीं जाऊँगा' इस प्रकार का मरणपर्यन्त तक के लिए संकल्प दिग्व्रत है। आवश्यकसूत्र में बारह व्रतों के अतिचार के पाठ में ऊर्ध्व, अधो एवं तिर्यक दिशा का यथापरिमाण तथा पाँच आस्रव सेवन के त्याग को दिग्व्रत कहा है।
उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत- उपभोग व परिभोग वाले पदार्थों की मर्यादा करना ही उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत कहलाता है। इस व्रत को धारण करने में श्रावक यह मर्यादा करता है कि अमुक-अमुक पदार्थों के अतिरिक्त शेष पदार्थों
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन