Book Title: Bhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Author(s): Tara Daga
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 299
________________ 1. सर्वप्राणातिपात से विरमण, 3. सर्व अदत्तादान से विरमण, 5. सर्वपरिग्रह से विरमण देशमूलगुण प्रत्याख्यान में श्रावकों के पाँच अणुव्रत आते हैं । इस दृष्टि से इसके भी पाँच भेद किये गये हैं 1. स्थूलप्राणातिपात से विरमण, 3. स्थूल अदत्तादान से विरमण, 5. स्थूलपरिग्रह से विरमण । - 2. सर्वमृषावाद से विरमण 4. सर्वमैथुन से विरमण उत्तरगुणप्रत्याख्यान- उत्तरगुणप्रत्याख्यान कुछ दिनों या कुछ समय के लिए किये जाते हैं। इसके भी दो भेद हैं 2. स्थूलमृषावाद से विरमण 4. स्थूलमैथुन से विरमण, 1. सर्वउत्तरगुणप्रत्याख्यान, 2. देशउत्तरगुणप्रत्याख्यान सर्वउत्तरगुणप्रत्याख्यान के दस भेद इस प्रकार हैं 1. अनागत, 2. अतिक्रान्त, 3. कोटिसहित, 4. नियंत्रित, 5. साकार, 6. अनाकार, 7. परिणामकृत, 8. निरवशेष, 9. संकेत, 10 अद्धाप्रत्याख्यान देशउत्तरगुणप्रत्याख्यान में श्रावक के तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रतों का समावेश होता है। इसके सात भेद हैं 1. दिग्व्रत, 2. उपभोग - परिभोगपरिमाण, 3. अनर्थदण्डविरमण, 4. सामायिक, 5. देशावकाशिक, 6. पौषधोपवास, 7. अतिथिसंविभाग तथा अपश्चिम मरणान्तिक संलेखना - जोषणा - आराधना । दुष्प्रत्याख्यानी व सुप्रत्याख्यानी 74 प्रत्याख्यान के अन्तर्गत क्रिया के साथ-साथ ज्ञान को भी महत्त्व दिया गया है। ज्ञान के अभाव में क्रिया शुद्ध नहीं होती है । इसी बात को समझाते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है- किसी व्यक्ति द्वारा यह कहने मात्र से कि 'मैंने सर्व प्राण, भूत, जीव आदि की हिंसा का परित्याग किया है । उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं होता है। जब तक उसे यह ज्ञान नहीं होता कि ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं तब तक उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है । जिस पुरुष को जीव - अजीव त्रस - स्थावर का ज्ञान होता है अगर वह सर्वप्राण, भूत, जीव आदि की हिंसा का प्रत्याख्यान करे तो उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। ज्ञान के अभाव में प्रत्याख्यान का यथावत् पालन नहीं होता है अत: वह प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान रहता है, सुप्रत्याख्यान नहीं होता है । ' श्रावकाचार 273

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