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है, उसके बाद पुनः नई दीक्षा दी जाती है, इसे अनवस्थाप्याई प्रायश्चित कहा जाता
पारांचिकाई- किसी प्रबल दोष के कारण साधु को गच्छ से बाहर निकलने तथा स्वक्षेत्र का त्याग करने योग्य प्रायश्चित दिया जाय, उसे पारांचिकाह प्रायश्चित कहते हैं। इस प्रायश्चित में जिनकल्पिक श्रमण की तरह उग्र तपस्या करनी होती है, अवधि पूर्ण होने पर पुनः नई दीक्षा लेकर वह श्रमण-संघ में सम्मिलित होता है।
तत्वार्थसूत्र में प्रायश्चित के नौ प्रकारों का उल्लेख मिलता है। पारांचिकार्ह का वहाँ उल्लेख नहीं मिलता है। विशेषसाध्वाचार
आत्मा की विशेषशुद्धि के लिए जिन साध्वाचार का विशेषरूप से पालन किया जाता है उसे विशेष साध्वाचार कहते हैं। इसमें तप, परीषह, भिक्षुप्रतिमाएँ, समाधिमरण आदि सम्मिलित हैं। तप
तप श्रमण संस्कृति का प्राण है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है। तप के द्वारा ही आत्मा को निर्मल बनाकर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। श्रमण जीवन का मूलमंत्र तप है। वस्तुतः श्रमण शब्द तपस्वी का ही पर्यायवाची है। श्रमण तप से अपनी आत्मा को तपाकर परमात्मा बनाने का प्रयत्न करता है। आचार्य हरिभद्र ने दशवैकालिकवृत्ति में तप का दूसरा नाम श्रमण दिया है। तप श्रमण संस्कृति में मोक्ष-आराधना का एक सशक्त माध्यम है। तप के द्वारा श्रमण आत्मा के साथ प्रगाढ़रूप से चिपके हुए कर्मरूपी मैल को हटाकर आत्मा को निर्मल बनाता है। यही कारण है कि श्रमण संस्कृति में तप को धर्म का नाम दिया गया है। स्थानांग27 व समवायांग28 में तप को दस प्रकार के धर्मों में एक धर्म के रूप में माना गया है। जैनधर्म तप को उत्कृष्ट मंगल के रूप में मानता है। उत्तराध्ययन में ज्ञान-दर्शनचारित्र के साथ तप को भी मोक्ष का मार्ग कहा है। तप का महत्त्व
तप की महिमा और गरिमा का जो आदर्श श्रमण संस्कृति ने प्रस्तुत किया है, वह अनूठा व अद्भुत है। श्रमण संस्कृति में तप जीवन के उत्थान व आत्मा के निज-स्वरूप की प्राप्ति में सहायक माना गया है। तप की उत्कृष्ट आराधना से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है। भगवतीसूत्र में आये कई उदाहरण इस बात को
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन