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अभ्याहृत- साधु के सामने लाकर आहारादि देना ।
कान्तारभक्त- वन में रहे हुए भिखारी आदि के लिए तैयार किया हुआ
आहारादि ।
दुर्भिक्षभक्त- दुष्काल पीड़ित लोगों को देने के लिए तैयार किया हुआ
आहारादि ।
ग्लानभक्त - रोगियों के लिए तैयार किया हुआ आहारादि ।
वर्दलिकाभक्त- दुर्दिन या वर्षा के समय भिखारियों के लिए तैयार किया हुआ आहारादि ।
प्राघूर्णकभक्त - पाहुनों के लिए बनाया हुआ आहारादि ।
शय्यातरपिण्ड- साधुओं को मकान देने वाले के यहाँ का आहार लेना । राजपिण्ड - राजा के लिए बने हुए आहारादि में से देना ।
इसके अतिरिक्त मूल, कन्द, बीज, फल और हरी वनस्पति का भोजन अथवा पान भी साधु के लिए अकल्पनीय बताया गया है।
सदोष व निर्दोष भिक्षाचर्या 4
भगवतीसूत्र में श्रमणों की भिक्षाचर्या में लगने वाले दोषों तथा दोषमुक्त भिक्षाचर्या पर भी विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
अंगार, धूम व संयोजना दोष
साधु द्वारा भिक्षाविधि से लाये गये निर्दोष आहार का साधुओं के मण्डल में बैठकर सेवन करते समय निम्न दोष लगते हैं ।
अंगार दोष- यदि कोई निग्रंथ या निर्ग्रथी प्रासुक व एषणीय चतुर्विध आहार को ग्रहण कर उसमें मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित या आसक्त होकर उसका सेवन करते हैं तो वह आहार अंगारदोष से दूषित आहार- पानी कहलाता है ।
धूम दोष- जो निग्रंथ या निर्ग्रथी प्रासुक व एषणीय चतुर्विध आहार को ग्रहण करके अत्यंत अप्रीतिपूर्वक या क्रोध से खिन्न होते हुए उस आहार का सेवन करते हैं तो वह आहार धूम दोषयुक्त हो जाता है ।
संयोजना दोष- जो निर्ग्रथ या निर्ग्रथी प्रासुक व एषणीय आहार को ग्रहण करने के पश्चात् स्वाद या गुण उत्पन्न करने के लिए दूसरे पदार्थों के साथ संयोग करके आहार -पानी करते हैं, वह आहार- पानी संयोजना दोष से दूषित कहलाता है । अंगार, धूम व संयोजना दोष मुक्त आहार
मूर्च्छारहित, अगिद्ध, अग्रथित व अनासक्त भाव से किया गया आहार, अंगार दोष रहित आहार होता है, अप्रीतिपूर्वक या क्रोध से खिन्न होते हुए आहार
श्रमणाचार
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