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समय अपावृत (वस्त्ररहित) होकर वीरासन में बैठकर शीत सहन करना आदि क्रियाएँ भी सम्मिलित हैं। संलेखना, अनशन एवं समाधिमरण
___ सभी जीव जीने की इच्छा रखते हैं कोई भी मरना नहीं चाहता है- सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउंन मरिजिउं - (दशवैकालिक 6.10) वैदिक ऋषि भी भगवान् से यही प्रार्थना करता है कि वह सौ वर्ष सुखपूर्वक जीवे। लेकिन जीवन व मृत्यु का संबंध अटूट है। जैन साहित्य में बताये गये सात भयों में मृत्यु भय सबसे बड़ा बताया गया है। भगवान् महावीर ने आचारांग3 में कहा है कि प्राणिवधरूप असाता कष्ट सभी प्राणियों के लिए महाभय है। सूत्रकृतांग74 में भी कहा गया है कि आयुष्य क्षीण हो जाने पर प्राणी जीवन से च्युत हो जाता है। मृत्यु को भय या महाभय मानने का प्रमुख कारण यह है कि हमारा ध्यान सम्पूर्णतः जीवन पर ही केन्द्रित रहता है। हम मृत्यु के बारे में सोचना ही नहीं चाहते हैं। किन्तु, जैन मनीषियों ने जीवन के साथ-साथ मृत्यु को भी एक कला कहा है। सामान्य व्यक्ति विवेक के आलोक में मृत्यु का वरण नहीं करता है इससे उसका जीवन भी व्यर्थ हो जाता है। जैनागमों में व आगमोत्तर साहित्य में मरण के संबंध में विस्तार से विवेचन किया गया है। समवायांगसूत्र, उत्तराध्यननियुक्ति तथा दिगम्बर ग्रंथ मूलाराधना में मरण के 17 भेद बताये गये हैं। उनके नाम व क्रम में कुछ अन्तर है। समवायांगसूत्र5 में मरण के 17 भेद इस प्रकार बताये गये हैं
1. आवीचिमरण, 2. अवधिमरण, 3. आत्यंतिकमरण, 4. वलायमरण, 5. वशार्तमरण, 6. अन्तःशल्यमरण,7. तद्भवमरण,8. बालमरण,9. पण्डितमरण, 10. बालपण्डितमरण, 11. छद्मस्थमरण, 12. केवलीमरण, 13. वैहायसमरण, 14. गृद्धपृष्ठमरण, 15. भक्तप्रत्याख्यानमरण, 16. इंगिनीमरण, 17. पादपोपगमनमरण।
भगवतीसूत्र में तेरहवें शतक में सर्वप्रथम मरण के पाँच प्रकार बताये गये
___ 1. आविचिमरण, 2. अवधिमरण, 3. आत्यन्तिकमरण, 4. बालमरण, 5. पंडितमरण
आचार्य अभयदेवसूरि ने भगवतीवृत्ति में इनकी विस्तृत व्याख्या की है। ग्रंथ में इनके विभिन्न भेद-प्रभेद का भी उल्लेख किया गया है। द्वितीय शतक में मरण के दो भेद किये गये हैं।8- 1. बालमरण, 2. पण्डितमरण । बालमरण बारह प्रकार का बताया गया है। 1. वलयमरण (तड़फते हुए मरना) 2. वशार्तमरण
श्रमणाचार
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