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1. द्रव्यअवमोदरिका, 2. भावअवमोदरिका द्रव्यअवमोदरिका
आहार की मात्रा से कम खाना तथा आवश्यकता से कम वस्त्रादि रखना द्रव्यअवमोदरिका तप कहलाता है। द्रव्यअवमोदरिका से साधक का जीवन बाहर से हल्का, स्वस्थ व प्रसन्न रहता है। इसके पुनः दो अवान्तर भेद किये गये हैं;
1. उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका, 2. भक्तपानद्रव्य-अवमोदरिका
उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका- उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका का अर्थ है एक वस्त्र, एक पात्र तथा त्याक्तोपकरण-स्वदनता अर्थात् साधु को परिग्रह कम से कम रखना चाहिये। आचारांगसूत्र में भी श्रमणों के वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों की मर्यादा का निरूपण किया गया है।
भक्तपानद्रव्य-अवमोदरिका- भक्तपानद्रव्य-अवमोदरिका का अर्थ है, भूख से कम आहार करना। इसके पाँच प्रकारों का ग्रंथ में विवेचन किया है। अण्डे के बराबर आठ कवल प्रमाण आहार करना अल्पाहार-अवमोदरिका है, बारह कवल-प्रमाण आहार करना अपार्द्ध-अवमोदरिका है। सौलह कवल प्रमाण आहार करने वाला अर्धहारी है। चौबीस कवल-प्रमाण आहार करने वाला साधु ऊनोदरिका वाला है। बत्तीस कवल-प्रमाण आहार करने वाला प्रमाणोपेत ऊनोदरी कहलाता है। बत्तीस कवल से एक ग्रास भी कम आहार करने वाला श्रमण निग्रंथ प्रकामरसभोजी नहीं होता है। अर्थात् पूर्ण आहार करना तप नहीं माना जाता है, एक कोर भी कम आहार करे तो वह थोड़ा तप अवश्य माना जाता है। भाव-अवमोदरिका
क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों को कम करना, कम बोलना, अल्प झंझट करना, हृदयस्थ कषायों को शांत करना आदि भाव-अवमोदरिका तप है। भाव-अवमोदरिका तप में अन्तरंग जीवन में प्रसन्नता पैदा होती है और सद्गुणों का विकास होता है। ग्रंथ में अक्रोध, अमान, अमाया, अलोभ को श्रमणों के लिए प्रशस्त बताया है। भिक्षाचर्या
विविध प्रकार के अभिग्रह लेकर भिक्षा की गवेषणा करना भिक्षाचर्या तप कहलाता है। श्रमण अनगार भिक्षावृत्ति द्वारा अपना निर्वाह करता है। इस प्रक्रिया में श्रमण केवल अपने जीवन निर्वाह के लिए गृहस्थ के घर जाकर शुद्ध आहार ग्रहण करता है। भिक्षा कई प्रकार की होती है। त्यागी, अहिंसक श्रमण अपने
श्रमणाचार
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