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__ 1. आगम व्यवहार, 2. श्रुत व्यवहार, 3. आज्ञा व्यवहार, 4. धारणा व्यवहार, 5. जीत व्यवहार
साधु जीवन के लिए उपयोगी इन पाँच व्यवहारों की मर्यादा का निरूपण करते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है कि जिस साधु के पास आगम व्यवहार हो उसे आगम व्यवहार से प्रवृत्ति-निवृत्ति (व्यवहार) करनी चाहिये। जिसके पास आगम न हो उसे श्रुत व्यवहार से, जिसके पास श्रुत न हो तो उसे आज्ञा व्यवहार से, जिसके पास आज्ञा न हो उसे जिस प्रकार की धारणा हो उस धारणा से, तथा जिसके पास धारणा भी न हो, उसे जिस प्रकार का जीत व्यवहार हो उस जीत व्यवहार से चलना चाहिये। सम्यक् प्रकार से रागद्वेष से रहित व्यवहार करता हुआ श्रमण निग्रंथ (तीर्थंकर की) आज्ञा का आराधक होता है।
दर्शन आराधना- शंका, कांक्षा आदि अतिचारों को न लगाते हुए निःशंकित, निष्कांक्षित आदि आठ दर्शनाचारों का शुद्धतापूर्वक पालन करते हुए सम्यक्त्व की आराधना दर्शन आराधना है। दर्शन आराधना से तात्पर्य सम्यक् दर्शन से है। सम्यक् दर्शन का स्वरूप बताते हुए भगवतीसूत्र में कहा गया है- तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहि पवेदितं - (1.3.6) अर्थात् वही सत्य है जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित किया गया है। दर्शन आराधना से व्यक्ति में सही व गलत का विवेक जाग्रत होता है। यही विवेक ज्ञान आराधना एवं चारित्र आराधना में सहायक होता है। इसलिए भगवतीसूत्र में दर्शन आराधना के पालक को ही सच्चा आराधक कहा है। दर्शन आराधना के पांच अतिचार बताये हैं
1. शंका- तत्त्व के विषय में सन्देह, जैसे- पानी में जीव है या अजीव? इत्यादि।
2. कांक्षा- कुतत्त्व की आकांक्षा।
3. विचिकित्सा- धार्मिक आराधना के फल के विषय में सन्देह, उदाहरणार्थ- तपस्या करने से कर्ममुक्ति होगी या नहीं?
4. भेद- तत्त्व या सत्य के प्रति मति का द्वैत, अनिर्णायक स्थिति का होना।
5. कलुष- तत्त्व के प्रति निर्मल बुद्धि का अभाव
चारित्र आराधना- सामायिक आदि चारित्रों अथवा समिति-गुप्ति, व्रतमहाव्रतादि रूप चारित्र का निरतिचार विशुद्ध पालन करना चारित्राराधना है। ग्रंथ में चारित्र आराधना को महत्त्व देते हुए कहा गया है कि जो श्रुत सम्पन्न होने के
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन