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श्रमणाचार
जैन श्रमणों की आचार संहिता अन्य भारतीय परम्परा की आचार संहिता से अत्यन्त कठोर है। जैन श्रमणाचार संहिता का भवन संयम व तप के कठोर नियमों पर खड़ा है। जैनागमों में श्रमणों के आचार पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इन ग्रंथों में श्रमणों को असत्य भाषा-त्याग, कषायों पर नियंत्रण तथा साधना में एकाग्रता का सम्मिलित संदेश दिया गया है। आचारांग में श्रमण जीवन के लिए पालनीय बाह्य व आभ्यान्तर दोनों ही आचारों पर प्रकाश डाला गया है। शस्त्रपरिज्ञा' नामक अध्ययन में जहाँ जीव हिंसा का निषेध किया गया है, वहीं 'शीतोष्णीय' नामक अध्ययन में परीषहों को समभावपूर्वक सहन कर संयम साधना में दृढ़ रहने की प्रेरणा दी गई है। नौवां अध्ययन 'उपधानश्रुत' श्रमण जीवन में तप की महिमा को प्रतिपादित करता है। इसके अतिरिक्त आचारांग में श्रमणों के अशन, वसन, पात्र, निवास, भिक्षा संबंधी नियमों का भी वर्णन हुआ है। सूत्रकृतांगसूत्र में श्रमण के लिए आचरणीय समिति, परीषहजय, कषायजय आदि का उपदेश दिया गया है। स्थानांगसूत्र में महाव्रत, अष्टप्रवचनमाता, प्रत्याख्यान, तप, प्रायश्चित, आलोचना, सेवा, स्वाध्याय, ध्यान आदि का निरूपण है। उत्तराध्ययन श्रमण के आचार का निरूपण करने वाला प्रमुख ग्रंथ है। इसमें साधक को जागरूक रहने व तनिक भी प्रमाद न करने का संदेश दिया गया है। श्रमण के आचार को प्रतिपादित करने वाले ग्रंथों में दशवैकालिक का अपना मुख्य स्थान है। दशवैकालिक में संवेद, निर्वेद, विवेक, सुशील-संसर्ग, आराधना, तप, ज्ञान-दर्शन-चारित्र, विनय, शान्ति व मार्दव ये श्रमण के लक्षण बताये हैं। इसके अतिरिक्त व्यवहारसूत्र, निशीथसूत्र, दशाश्रुतस्कन्ध आदि ग्रन्थों में भी श्रमणों के आचार-व्यवहार का वर्णन प्राप्त होता है। भगवतीसूत्र में श्रमणाचार
भगवतीसूत्र में एक ओर जहाँ जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों- षड्द्रव्य, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, ज्ञान के भेद-प्रभेद आदि का विस्तार से विवेचन है, वहीं दूसरी ओर श्रमणधर्म के प्रमुख आचार व व्रतों का भी इसमें विस्तार से
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन