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5. सूक्ष्म- केवल छोटे-छोटे अपराधों की आलोचना करना।
6. छन्न- अधिक लज्जा के कारण आलोचना के समय अव्यक्त-शब्द बोलते हुए आलोचना करना।
7. शब्दाकुल- शब्दाकुल होकर उच्चस्वर में बोलना।
8. बहुजन- एक ही दोष या अतिचार की अनेक साधुओं के पास आलोचना करना।
9. अव्यक्त- अगीतार्थ के समक्ष आलोचना करना।
10. तत्सेवी- जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसी दोष का सेवन करने वाले आचार्य या बड़े साधु के समक्ष उसकी आलोचना करना। आलोचना करने वाले श्रमण के गुण
दस गुणों से युक्त श्रमण अनगार अपने दोषों की आलोचना करने योग्य होता
__ 1. जाति सम्पन्न, 2. कुल सम्पन्न, 3. विनय सम्पन्न, 4. ज्ञान सम्पन्न, 5. दर्शन सम्पन्न, 6. चारित्र सम्पन्न, 7. क्षमाशील, 8. दान्त, 9. अमायी, 10. अपश्चातापी आलोचना सुनने वाले साधक के गुण
श्रमण को अपने दोषों की आलोचना किसी योग्य आचार्य के समक्ष करनी चाहिये। आलोचना को सुनकर उसके लिए प्रायश्चित देने वाले साधक के आठ गुण बताये गये हैं;
___ 1. आचारवान, 2. आधारवान, 3. व्यवहारवान, 4. अपव्रीडक, 5. प्रकुर्वक, 6. अपरिस्रावी, 7. निर्यापक, 8. अपायदर्शी
स्थानांगसूत्र में आलोचना सुनने वाले साधक के 10 गुण बताये हैं। वहाँ प्रियधर्मी व दृढ़धर्मी इन दो गुणों का भी उल्लेख है। समाचारी
समाचारी जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। समाचारी श्रमणों का वह विशेष क्रियाकलाप है, जो श्रमणों के लिए मौलिक नियमों की तरह अनिवार्य है। समाचारी शब्द का प्रयोग श्रमणों के व्यावहारात्मक आचार के लिए किया गया है। श्रमण जीवन की दिन रात में जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं, वे सभी 'समाचारी' शब्द से व्यवहत की गई हैं। भगवतीवृत्ति में कहा गया है कि समाचारी साधु के आचार पालन में उपयोगी आचार पद्धति है (भगवती प्रमेय चन्द्रिका टीका भाग-16, पृ. 415-416) वस्तुतः समाचारी संघीय जीवन जीने की श्रेष्ठ कला है। इससे परस्पर
श्रमणाचार
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