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सात नयों का उल्लेख इस ग्रंथ में कहीं हुआ है । ये सभी इस बात का प्रमाण हैं इस काल में अनन्तधर्मात्मक वस्तु के स्वरूप को विवेचित करने के लिए नय का उद्भव होता दिख रहा था ।
नय का स्वरूप
भगवतीसूत्र में सात नयों का उल्लेख उस रूप में नहीं प्राप्त होता है, जैसा आज जैन-परम्परा में प्रचलित है । तथापि नयवाद के वर्तमान रूप के मूल स्वरूप को समझने में यह ग्रंथ काफी सहायक है । यहाँ नयवाद के बीज मौजूद हैं। नयवाद का जो स्वरूप इसमें वर्णित है उसे निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव
एक ही वस्तु में अनेक धर्म पाये जाते हैं। साथ ही दृष्टा की रुचि और शक्ति, दर्शन का साधन, दृश्य की देशिक और कालिक स्थिति, दृश्य का स्थूल और सूक्ष्मरूप आदि अनेक कारण हैं, जिनसे एक ही वस्तु के विषय में अनेक मतों की सृष्टि होती है । इनकी गणना भी असंभव है और जब इन मतों की गणना असंभव है तो इन मतों के उत्थानभूत नयों की गणना की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
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इस असंभव को ध्यान में रखते हुए भगवान् महावीर ने सभी प्रकार की अपेक्षाओं का साधारणीकरण करते हुए उनका चार प्रकार से वर्गीकरण कियाद्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव। इसी के आधार पर प्रत्येक वस्तु के भी चार प्रकार हो जाते हैं। अर्थात् दृष्टा के पास चार दृष्टियाँ, अपेक्षाएँ, आदेश हैं, और वह इन्हीं के आधार पर वस्तुदर्शन करता है । कहने का अभिप्राय यह है कि वस्तु का जो कुछ रूप हो, वह इन चारों में से किसी एक में अवश्य समाविष्ट हो जाता है और दृष्टा जिस किसी दृष्टि से वस्तुदर्शन करता है, उसकी वह दृष्टि भी इन्हीं चारों में से किसी एक के अन्तर्गत हो जाती है 164
भगवतीसूत्र में ऐसे कई उदाहरण प्राप्त होते हैं, जहाँ अनेक विरोधों का परिहार इन चार दृष्टियों और वस्तु के इन चार रूपों के आधार पर किया गया है। लोक की सान्तता व अनन्तता, जीव की सान्तता व अनन्तता, जीव की नित्यानित्यता, परमाणु की शाश्वतता - अशाश्वतता, चरमता - अचरमता आदि अनेक विरोधों का परिहार करने के लिए ग्रंथ में द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव इन चारों दृष्टियों का प्रयोग किया गया है। 65 ग्रंथ में ऐसे भी कई उदाहरण मिलते हैं जहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल व
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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