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परन्तु क्या आकाश का अपना कोई आधार नहीं है, जिसका आकाश आधेय बन सके? इसका उत्तर देते हुए राजवार्तिक" में कहा गया है 'आकाश अपने आधार पर ठहरा हुआ है। उससे अधिक प्रमाण वाले दूसरे द्रव्य का अभाव होने के कारण भी उसका आधारभूत कोई दूसरा द्रव्य नहीं हो सकता। यदि किसी दूसरे आधार की कल्पना की जाये तो उससे अनावस्था दोष का प्रसंग आयेगा, परन्तु आकाश स्वयं अपना आधारभूत होने से वह दोष नहीं आ सकता है । एवंभूतनय की दृष्टि से सारे द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं । इनमें आधार - आधेय भाव नहीं है । व्यवहार नय से आधार-आधेय की कल्पना होती है । व्यवहार से ही वायु का आकाश, का वायु, पृथ्वी का जल, सभी जीवों का पृथ्वी, जीव का अजीव, अजीव का जीव, कर्म का जीव और जीव का कर्म, धर्म, अधर्म तथा काल का आकाश आधार माना जाता है। परमार्थ से तो वायु आदि समस्त स्वप्रतिष्ठित हैं । '
जल
दिक्
आकाश का विवेचन करते समय दिशाओं की चर्चा करना भी आवश्यक हो जाता है। जैनदर्शन आकाश की तरह दिशाओं को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानता है। जैनागमों में दिशा की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि आकाश के जिस भाग से वस्तु का व्यपदेश या निरूपण किया जाता है वह दिक् या दिशा कहलाती है।47 आचारांग 48 का प्रारंभ दिशा विवेचन से ही हुआ है। आचारांग में छ: दिशाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधः दिशा। स्थानांग में छ: दिशाओं तथा एक अन्य अपेक्षा से दस दिशाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं ।
भगवतीसूत्र' में दिशाओं का स्वरूप बताते हुए उन्हें 'जीव - अजीव रूप' बताया गया है। इसके कारण को स्पष्ट करते हुए भगवतीवृत्ति" में कहा है कि पूर्वादि छ: दिशाएँ जीवरूप इसलिए हैं कि उनमें एकेन्द्रियादि जीव रहे हुए हैं और अजीव रूप इसलिए हैं कि उनमें धर्मास्तिकायादि अजीव पदार्थ रहे हैं । भगवतीसूत्र में छ: दिशाओं तथा प्रकारान्तर से दस दिशाओं के नामों का उल्लेख है । छ: दिशाओं के नाम इस प्रकार बताये हैं- 1. पूर्व, 2. दक्षिण, 3. पश्चिम, 4. उत्तर, 5. ऊर्ध्वदिशा, 6. अधोदिशा ।
दस दिशाओं के नाम इस प्रकार हैं- 1. पूर्व, 2. पूर्व - दक्षिण, 3. दक्षिण 4. दक्षिण-पश्चिम, 5. पश्चिम, 6. पश्चिमोत्तर, 7. उत्तर, 8. उत्तरपूर्व 9. ऊर्ध्वदिशा, 10. अधोदिशा ।
अरूपी - अजीवद्रव्य
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