________________
काल द्रव्य
लोक की संरचना में जैन- दर्शन जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म व काल इन छः द्रव्यों को स्वीकार करता है । काल द्रव्य का अस्तित्व है इस बात से तो प्रायः सभी जैन दार्शनिक सहमत हैं, किन्तु काल की स्वतंत्र सत्ता व उसके स्वरूप को लेकर आचार्यों में मतभेद है । काल द्रव्य की स्वतंत्रता को लेकर जैन परंपरा में दो दृष्टियाँ प्राप्त होती हैं। एक दृष्टि काल को स्वतंत्र द्रव्य के रूप में स्वीकार करती है जबकि दूसरी विचारधारा उसे जीव- अजीव की पर्याय के रूप में स्वीकार करती है। इस संबंध में मधुकर मुनि ने व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र की प्रस्तावना में विवचेन किया है।
आगमों में काल की मान्यता
प्राचीन आगमग्रंथ उत्तराध्ययनसूत्र में लोक का स्वरूप बताते हुए उसे छः द्रव्यों का समूह कहा है
धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल - ज एस लोगो ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदंसेहिं ||
(28.7)
अर्थात् जिनवरों द्वारा यह लोक धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल व जीव का समूह रूप कहा गया है। उत्तराध्ययन के इस उल्लेख से स्पष्ट है कि जैन आगमों में काल के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार किया गया है।
-जन्तवो ।
-
प्रज्ञापनासूत्र " में प्रज्ञापना के दो प्रमुख भेद जीव - प्रज्ञापना व अजीवप्रज्ञापना किये गये हैं । पुनः अजीव प्रज्ञापना के रूपी व अरूपी भेद किये हैं। अरूपी के दस भेदों में एक भेद अद्धासमय किया गया है, जो काल का ही पर्यायवाची है। राजवार्तिक में अद्धासमय को कालवाची कहा है- अद्धाशब्दो निपातः कालवाची - (5.1.16/433.22) अर्थात् अद्धाशब्द एक निपात है, वह कालवाची है। स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि - समयाति वा आवलियाति वा जीवति या अजीवति या पवुच्चति - (2.4.387-389 ) अर्थात् समय व आवलिका आदि जीव रूप भी हैं व अजीव रूप भी हैं। इसी प्रकार आन, प्राण, स्तोक, क्षण, लव, मुहूर्त्त सभी को जीवरूप व अजीव रूप दोनों कहा है। इसका विवेचन करते हुए मधुकर मुनि ने लिखा है कि 'यद्यपि काल को एक स्वतंत्र द्रव्य माना गया है, तो भी वह चेतन जीवों के पर्याय परिवर्तन में सहकारी है, अतः उसे यहाँ पर जीव कहा है और अचेतन पुद्गलादि द्रव्यों के परिवर्तन में सहकारी होता है, अत: उसे अजीव कहा गया है । स्थानांग के इस सूत्र के कारण कुछ विद्वानों ने काल
अरूपी - अजीवद्रव्य
147