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इस प्रकार छ: दिशाओं में चार विदिशाओं के 4 कोणों को जोड़कर दस दिशाएँ बताई गई हैं। इन दस दिशाओं के नामान्तर को भी बताया गया है ।52
1. ऐन्दी (पूर्व), 2. आग्नेयी(अग्निकोण), 3. याम्या (दक्षिण), 4. नैर्ऋती (नैर्ऋत्यकोण), 5. वारुणी (पश्चिम) 6. वायव्या (वायव्वकोण),7. सौम्या (उत्तर) 8. ऐशानी (ईशानीकोण), 9. विमला (ऊर्ध्वदिशा), 10. तमा (अधोदिशा)
इन दिशाओं के नामान्तर का कारण स्पष्ट करते हुए भगवतीवृत्ति में कहा गया है कि पूर्व दिशा ऐन्द्री इसलिए कहलाती है क्योंकि उसका स्वामी इन्द्र है। इसी प्रकार अग्नि, यम, नैर्ऋती, वरुण, वायु, सोम और ईशान देवता स्वामी होने से इन दिशाओं को क्रमशः आग्नेयी, याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या, सौम्या और ऐशानी कहते हैं। प्रकाश युक्त होने से ऊर्ध्वदिशा को विमला व अन्धकार युक्त होने से अधोदिशा को तमा कहते हैं। ऐन्द्री आदि दस दिशा-विदिश का स्वरूप
ऐन्द्री- ऐन्द्री दिशा के प्रारंभ में रूचक प्रदेश हैं। वह रूचक प्रदेशों से निकली है। उसके प्रारंभ में दो प्रदेश होते हैं। आगे दो-दो प्रदेशों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। वह लोक अपेक्षा से असंख्यात प्रदेशवाली है और अलोक की अपेक्षा से अनंत प्रदेशवाली है। लोक-आश्रयी वह सादि-सान्त है। अलोक आश्रयी वह सादि-अनंत है। लोक-आश्रयी वह मुरज (मृदंग) के आकार की है, और अलोक-आश्रयी वह ऊर्ध्वशकटाकार की है।
आग्नेयी- आग्नेयी दिशा के आदि में रूचक प्रदेश हैं। उसका उद्गम भी रूचक-प्रदेश से है। उसके आदि में एक प्रदेश है। वह अन्त तक एक-एक प्रदेश के विस्तार वाली है। वह अनुत्तर है। वह लोक की अपेक्षा असंख्यात प्रदेश वाली है और अलोक की अपेक्षा अनन्त प्रदेश वाली है। वह लोक-आश्रयी सादि-सान्त है, अलोक-आश्रयी सादि अनन्त है। उसका आकार टूटी हुई मुक्तावली के समान है। याम्या, वारुणी व सौम्या दिशाओं का स्वरूप ऐन्द्री के समान है। शेष नैऋती, वायव्या व ऐशानी विदिशाओं का स्वरूप आग्नेयी की तरह है।
विमला- विमला दिशा के आदि में रूचक-प्रदेश हैं। वह रूचक प्रदेशों से निकली है। उसके आदि में चार प्रदेश हैं। वह अन्त तक दो प्रदेशों के विस्तार वाली है। वह अनुत्तर है। लोक-आश्रयी व असंख्यात प्रदेश वाली है, जबकि अलोक आश्रयी अनन्त प्रदेश वाली है, आकार की दृष्टि से रूचकाकार है। प्रदेश विस्तार की दृष्टि से तमा दिशा का स्वरूप विमला दिशा की तरह ही है।
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन