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ज्ञान एवं प्रमाण विवेचन
ज्ञानवाद __ जैन-दर्शन ज्ञान को आत्मा का स्वाभाविक गुण स्वीकार करता है। स्वाभाविक गुण वह होता है, जो अपने आश्रयभूत द्रव्य का त्याग नहीं करता है। अत: जैन परम्परा ज्ञान से विमुक्त आत्मा की कल्पना ही नहीं कर सकती है। इस परंपरा में ज्ञान व आत्मा के अभेद की चर्चा बहुत पुरानी है। सर्वाधिक प्राचीन जैन आगम ग्रंथ आचारांग में ज्ञान व आत्मा के एकत्व को स्थापित करते हुए कहा गया हैजे आता से विण्णाता, जे विण्णाता से आया - (1.5.5.171) अर्थात् जो आत्मा है वह ज्ञान रूप है तथा जो ज्ञान है वह भी आत्मरूप है। यहाँ आत्मा व ज्ञान में पूर्णरूप से तादात्म्य स्थापित कर ज्ञान को आत्मा का निज गुण मान लिया गया है। भगवतीसूत्र में भी ज्ञान को आत्मा से अभिन्न मानते हुए कहा गया है- आया सिय णाणे सिय अन्नाणे, णाणे पुण नियमं आया - (12.10.10) अर्थात् आत्मा कथंचित् ज्ञानरूप है, कथंचित अज्ञान रूप है, किन्तु ज्ञान तो नियम से ही आत्मरूप है। यहाँ द्रव्यदृष्टि से ज्ञान व आत्मा की अभिन्नता को स्पष्ट किया गया है। चूंकि ज्ञान आत्मा का परिणाम है, जो कि बदलता रहता है। इस दृष्टि से ग्रंथ में ज्ञान व आत्मा में भेद भी स्वीकार किया गया है। पर्याय दृष्टि से ज्ञान व आत्मा में भेद करते हुए आत्मा के आठ प्रकारों में एक भेद ज्ञानात्मा किया गया है।
1. द्रव्यात्मा, 2. कषायात्मा, 3. योगात्मा, 4. उपयोगात्मा, 5. ज्ञानात्मा, 6. दर्शनात्मा, 7. चारित्रात्मा, 8. वीर्यात्मा।
आचार्य कुंदकुंद ने भी व्यवहार व निश्चयनय के माध्यम से ज्ञान व आत्मा के संबंध को स्पष्ट करते हुए कहा है कि व्यवहारनय से ज्ञान व आत्मा में भेद है, किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा से ज्ञान व आत्मा में कोई भेद नहीं है। उक्त कथन में आचार्य कुंदकुंद ने आत्मा के अन्य गुणों को भी ज्ञानान्तर्गत कर लिया है क्योंकि आत्मा में ज्ञान के अतिरिक्त और भी कई गुण हैं। लेकिन इस विरोध का
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन