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हानि-वृद्धि की अपेक्षा स्वप्रत्यय है तथा पर द्रव्यों में वर्तना हेतु होने से पर प्रत्यय भी है। स्पष्ट है कि द्रव्यों के गुणों से युक्त होने के कारण भगवतीसूत्र में उसे छः द्रव्यों में सम्मिलित किया गया है तथा अस्तिकायरूप न होने के कारण पंचास्तिकायरूप लोक में उसका उल्लेख नहीं है। भगवतीसूत्र में छः द्रव्यों के अल्पत्व व बहुत्व का निरूपण करते समय भी अद्धासमय का उल्लेख किया गया है। धर्मास्तिकायादि की स्पर्शनादि में भी काल-द्रव्य का उल्लेख किया गया है। तथा ग्रंथ में अरूपी अजीव द्रव्यों के पाँच, सात व दस प्रभेदों में अद्धासमय को सम्मिलित किया गया है।
तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने प्रथमतः अजीव द्रव्यों के साथ काल द्रव्य को नहीं स्वीकार किया है- अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः - (5.1) किन्तु, बाद में कालाश्चेत्ये-(5.38) सूत्र द्वारा काल द्रव्य को मान्यता देते हुए कहा है कि कोई आचार्य काल को भी द्रव्य रूप में स्वीकार करते हैं। यह सूत्र श्वेताम्बर परम्परा में मान्य है। दिगम्बर परंपरा 'कालाश्य' सूत्र को स्वीकार करती है अर्थात् काल भी द्रव्य है। दिगम्बर परंपरा
दिगम्बर परंपरा में कुंदकुंद, अकलंक, पूज्यपाद आदि आचार्य काल द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करते हैं। पंचास्तिकाय61 में आचार्य कुंदकुंद ने कालद्रव्य के अस्तित्व को प्रतिपादित करते हुए कहा है कि काल परिणाम से उत्पन्न होता है और परिणाम निश्चय कालाणु रूप द्रव्यकाल से उत्पन्न होता है। इस दृष्टि से व्यवहार काल क्षण-प्रतिक्षण विनाशी व निश्चयकाल अविनाशी है। प्रवचनसार2 में आचार्य कुंदकुंद द्वारा काल द्रव्य का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। अकलंक ने उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् इन लक्षणों से युक्त होने के कारण काल द्रव्य को मानते हुए कहा है कि काल में अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारण गुण और वर्तना, हेतुत्व आदि असाधारण गुण पाये जाते हैं। व्यय व उत्पाद पर्यायें भी काल में बराबर होती हैं, अत: वह द्रव्य है पर वह कायरूप नहीं है। आधुनिक विद्वानों के मत __ऊपर काल के संबंध में जैनागमों व उसके व्याख्यासाहित्य में प्रतिपादित भिन्न-भिन्न मतों का विवेचन किया गया है। काल की स्वतंत्र सत्ता को लेकर मतभेद ही रहा है अतः आधुनिक विद्वानों ने भी इस पर अपने विचार व्यक्त किये
अरूपी-अजीवद्रव्य
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