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बाद में प्रसिद्ध वैज्ञानिक ए.ए. माइकेलसन और ई.डब्लू मोरले ने क्लीवलेण्ड में सन 1881 में ईथर के संबंध में भव्य परीक्षण किये, जिससे यह परिणाम सामने आया कि ईथर का प्रभाव प्रकाश की गति पर नहीं पड़ता है। इस निष्कर्ष के कारण ही बाद में आइंस्टीन ने इसके अस्तित्व का निरासन किया। इसके बाद के वैज्ञानिकों ने भी अपने प्रयोगों में भौतिक ईथर तत्त्व की आवश्यकता को पुनः स्वीकार नहीं किया।
इस संबंध में भौतिक विज्ञानवेत्ता डॉ. ए. एस. एंडिंगटन' लिखते हैं कि
Now a days it is agreed that ETHER is not a kind of matter, being non material its properties are quite unique characters such as mass and regidily which we meet with in matter will naturaly be absent in ETHER but the ETHER will have new difinite characters of its own now material ocean of ETHER. अर्थात् आजकल यह स्वीकार कर लिया गया है कि 'ईथर' भौतिक द्रव्य नहीं है। भौतिक की अपेक्षा उसकी प्रकृति भिन्न है। भौतिक में प्राप्त पिण्डत्व और घनत्व गुणों का ईथर में अभाव होगा, परन्तु उसके अपने नये और निश्चयात्मक गुण होंगे। स्पष्ट है कि विज्ञान चाहे गति के माध्यम तत्त्व के रूप में ईथर तत्त्व को स्वीकार करे, चाहे उसका निरासन करे अथवा उसके स्वरूप को भौतिक या अभौतिक किसी भी रूप में मान्यता प्रदान करे, किन्तु जैन-दर्शन धर्मद्रव्य की मान्यता को स्वीकृति प्रदान करता है। क्योंकि गति में सहायक धर्म-द्रव्य के अभाव में जीव, पुद्गलादि पदार्थ अनन्त में भटक जायेंगे, सारी लोक-व्यवस्था ही चरमरा जायेगी तथा एक दिन ऐसा आयेगा जब सम्पूर्ण विश्व शून्य हो जायेगा। अतः धर्म-द्रव्य लोक-व्यवस्था का अनिवार्य द्रव्य
धर्मास्तिकाय के पर्यायवाची
भगवतीसूत्र में धर्मास्तिकाय के पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख करते हुए कहा गया है- धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण आदि परिग्रहविरमण अथवा क्रोध-विवेक आदि निक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्त्रवणखेल-जल्ल-सिंघाण-परिष्ठापनिकासमिति अथवा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति या कायगुप्ति; ये सब तथा इनके समान जितने भी दूसरे इस प्रकार के शब्द हैं, वे धर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं। भगवतीवृत्ति' में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि धर्मशब्द के साधर्म्य से अस्तिकायरूप धर्म के प्राणातिपातविरमणादि चारित्रधर्म भी पर्यायवाची
अरूपी-अजीवद्रव्य
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