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किन्तु, आचार्य सिद्धसेन दिवाकर2 धर्म व अधर्म द्रव्य को स्वतंत्र रूप से न मानकर उन्हें द्रव्य की पर्याय मात्र मानते हैं। आचार्य सिद्धसेन के अतिरिक्त भी कई ऐसे दार्शनिक हैं, जो यह प्रश्न उठाते हैं कि जब आकाश सर्वगत है तो उसे ही गति व स्थिति में सहायक मान लेना चाहिये। धर्म व अधर्म द्रव्य को मानने का क्या तुक है? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि आकाश यद्यपि सर्वगत है और उसका गुण पदार्थों को अवगाहना देना है, किन्तु यदि गति व स्थिति में भी आकाश को ही सहायक मान लिया जाय तो जीव व पुद्गल की गति अलोकाकाश में भी होने लगेगी। इस तरह तो हमारी सम्पूर्ण लोक व्यवस्था ही समाप्त हो जायेगी। सारे पदार्थ अनंत आकाश में भटकने लगेंगे और हो सकता है किसी दिन यह वर्तमान विश्व ही खाली हो जाये। गति व स्थिति सहायक धर्म-अधर्म द्रव्य की पृथक् महत्ता को बताते हुए तत्त्वार्थराजवार्तिक में कहा गया है कि जिस प्रकार मछली की गति जल में ही संभव है, जल रहित पृथ्वी पर नहीं, उसी तरह आकाश की उपस्थिति होने पर भी धर्म-अधर्म हो तो जीव और पुद्गल की गति और स्थिति हो सकती है।33 आकाशास्तिकाय
आकाश शब्द का अर्थ हम प्रायः 'स्काई' से ग्रहण करते हैं, किन्तु जैन परंपरा में षड्द्रव्य विवेचन में जिस 'आकाश' द्रव्य की चर्चा हैं, उसका अर्थ 'स्काई' से न होकर 'स्पेस' से है। 'स्काई' वह है, जो पुद्गल रूप में विवेचित है
और रंग-बिरंगा दिखाई देता है। खाली जगह को आकाश कहते हैं। भगवतीसूत्र में इसे एक सर्वव्यापक अखण्ड व अमूर्त द्रव्य रूप में स्वीकार किया गया है, जो अपने अन्दर सर्वद्रव्यों को अवगाहित करने की शक्ति रखता है- गुणओ अवगाहणागुणे - (व्या. सू. 2.10.4)। भगवतीवृत्ति में आकाश शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है- 'आ मर्यादापूर्वक अथवा अभिविधिपूर्वक सभी अर्थ जहाँ काश को यानी अपने-अपने स्वभाव को प्राप्त हों, वह 'आकाश' है। यद्यपि यह अखंड है पर इसका अनुमान कराने के लिए इसमें प्रदेशों के रूप में खण्डों की कल्पना कर ली जाती है। यह स्वयं तो अनन्त है, परन्तु इसके मध्यवर्ती असंख्य भाग में अन्य द्रव्य अवस्थित हैं। इसके इस भाग का नाम लोक है और उससे बाहर शेष सर्व आकाश का नाम अलोक है । अवगाहना शक्ति की विचित्रता के कारण छोटे-से छोटे लोक के भाग में अथवा इसके एक प्रदेश पर अनन्तानन्त द्रव्य स्थित हैं।'35
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन