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परिमाण
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भगवतीसूत्र में धर्मास्तिकाय के परिमाण की चर्चा करते हुए कहा हैधर्मास्तिकाय लोकरूप है, लोकमात्र है, लोक प्रमाण है, लोक स्पृष्ट है और लोक ही स्पर्श किये हुए है अर्थात् धर्मास्तिकाय के उतने ही प्रदेश हैं जितने लोक के प्रदेश हैं । धर्मास्तिकाय अपने समस्त प्रदेशों द्वारा लोक के समस्त प्रदेशों को स्पृष्ट किये हुए है। जीव व पुद्गल की गति इस लोक में ही नियंत्रित हो वे अनंत अलोक में न भटक जायें, अतः लोक के आकार के समान ही भगवतीसूत्र में धर्मास्तिकाय के आकार को स्वीकार किया गया है।
अवगाहना एवं प्रदेश
अवगाहना की दृष्टि से धर्मास्तिकाय लोक - प्रमाण है, अलोक प्रमाण नहीं । अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं, उसी तरह धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश हैं। धर्मास्तिकाय के एक-एक प्रदेश लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर अवगाढ़ हैं। धर्मास्तिकाय की अवगाहना को समझाते हुए भगवतीसूत्र " में कहा गया है कि जहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ़ होता है वहाँ धर्मास्तिकाय का दूसरा प्रदेश अवगाढ़ नहीं हो सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि एक आकाश-प्रदेश पर धर्मास्तिकाय का एक ही प्रदेश ठहर सकता है, अन्य नहीं । लेकिन वहां पर अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय का एक-एक प्रदेश तथा अनंत जीवास्तिकाय व अनंत पुद्गलास्तिकाय ठहर सकते हैं ।
ग्रंथ में धर्मास्तिकाय के मध्य के प्रदेशों की भी चर्चा की गई है। किसी भी आकार का मध्य एक बिन्दु होता है, किन्तु यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि भगवतीसूत्र में धर्मास्तिकाय के मध्य के प्रदेश आठ माने गये हैं- अट्ठ धम्मत्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नता - ( 25.4.246)।
स्पर्शना
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तीनों लोकों द्वारा धर्मास्तिकाय की स्पर्शना स्पष्ट करते हुए भगवतीसूत्र 2 में कहा है कि अधोलोक धर्मास्तिकाय के आधे से कुछ अधिक भाग को स्पर्श करता है । तिर्यग्लोक धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करता है । ऊर्ध्व लोक धर्मास्तिकाय के देशोन (कुछ कम ) अर्धभाग को स्पर्श करता है । इसके अतिरिक्त रत्नप्रभादि सात पृथ्वियाँ, उन सातों के घनोदधि, घनवात, तनुवात, अवकाशान्तर, सौधर्मकल्प ईषत्प्राग्भारा - पृथ्वी तक धर्मास्तिकायादि की स्पर्शना का विवेचन भी ग्रंथ में किया गया है ।
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन