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जिसका गमन होता है, स्थिति भी उन्हीं की संभव है अर्थात् जो चलते हैं, वे ही ठहरते भी हैं। किन्तु, वे चलने और ठहरने वाले जीव और पुद्गल अपने परिणामों से ही गति और स्थिति करते हैं । अर्थात् उन्हें कोई जबरदस्ती चलाता या ठहराता नहीं है। गमन करने की शक्ति उन्हीं में ही है और ठहरने की शक्ति उन्हीं में ही है, धर्म व अधर्म तो सहायक मात्र हैं। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने अधर्मद्रव्य को जीव व पुद्गल की स्थिति में उदासीन कारण के रूप में स्वीकार किया है। द्रव्यसंग्रह में अधर्म-द्रव्य का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि स्थित होते हुए जीवों और पुद्गलों को जो स्थिर होने में सहकारी कारण है, उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं, जैसे छाया यात्रियों को स्थिर होने में सहकारी है, परन्तु वह गमन करते जीव और पुद्गल को स्थिर नहीं करती। ___ वस्तुतः अधर्म-द्रव्य जीव व पुद्गल पदार्थों में संतुलन का माध्यम है। जो जीव व पुद्गल चलते-चलते ठहरना चाहते हैं, वह उन्हें उसमें सहायता प्रदान करता है। किन्तु, यहाँ हमें यह नहीं समझना चाहिये कि जो द्रव्य स्थिर हैं, उन्हें अधर्मास्तिकाय ठहराता है। जैसे आकाश अपने स्वरूप की अपेक्षा से ही स्थिर है तो अधर्मास्तिकाय उसकी स्थिति में निमित्त कारण नहीं है।
भगवतीसूत्र में धर्म-द्रव्य की तरह ही अधर्म-द्रव्य का स्वरूप विवेचित हुआ है। अधर्मास्तिकाय को परिमाण की दृष्टि से लोक-प्रमाण, लोक-रूप, लोक-मात्र व लोक-स्पृष्ट माना है। अर्थात् अधर्मास्तिकाय के भी उतने ही प्रदेश स्वीकार किये हैं, जितने लोक के प्रदेश हैं। अधर्मास्तिकाय की अवगाहना को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जहाँ अधर्मास्तिकाय का एक-प्रदेश अवगाढ़ होता है वहाँ अधर्मास्तिकाय का अन्य दूसरा प्रदेश नहीं ठहर सकता है। अर्थात् धर्मास्तिकाय की तरह एक आकाश-प्रदेश पर अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश ही ठहर सकता है। अधर्मास्तिकाय की स्पर्शना के संबंध में वही विवेचन प्राप्त होता है जैसा कि धर्मास्तिकाय के संबंध में मिलता है।4 अधर्मास्तिकाय को भी एक अखंड द्रव्य के रूप में स्वीकार किया है।25 अधर्म के पर्यायवाची
भगवतीसूत्र में अधर्मास्तिकाय के अनेक अभिवचन कहे गए हैं, यथाअधर्म, अधर्मास्तिकाय, अथवा प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, अथवा ई र्यासंबंधी असमिति, यावत् उच्चार-प्रस्त्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाणपरिष्ठापनिकासम्बन्धी असमिति; अथवा मन-अगुप्ति, वचन-अगुप्ति और काय
अरूपी-अजीवद्रव्य
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