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माना है- स्पर्शरसगंधवर्णवंतः पुद्गला - (5.23)। परवर्ती आचार्यों में आचार्य तुलसी ने भी पुद्गल को रस, स्पर्श, गंध व वर्णवान कहा है।
प्राचीन जैनागमों में भगवतीसूत्र ही ऐसा ग्रंथ है जिसमे पुद्गल द्रव्य का सम्पूर्ण व विस्तृत विवेचन किया है। ग्रंथ में पुदगल के स्वरूप, पर्यायवाची, प्रकार, भेद, परमाणु का बंध, गति आदि अनेक पहलुओं पर विस्तार से विवेचन प्राप्त होता है। ____ भगवतीसूत्र में पुद्गल की परिभाषा इस प्रकार दी गई है- पंचवण्णे पंचरसे, दुगंधे अट्ठफासे रूवी अजीवे सासते अवट्टिते लोगदव्वे - (2.10.6) अर्थात् पुद्गल पाँच वर्ण, दो गंध, पाँच रस और आठ स्पर्शों से युक्त है। वह रूपी है, अजीव द्रव्य है, शाश्वत है तथा अवस्थित लोक द्रव्य है। संक्षेप में पुद्गल द्रव्य को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व गुण की अपेक्षा से पाँच प्रकार का बताया गया है। द्रव्य की अपेक्षा से पुद्गलद्रव्य अनन्तद्रव्य रूप है, क्षेत्र की अपेक्षा से वह लोक प्रमाण है, काल की अपेक्षा से वह तीनों कालों में वर्तमान होने के कारण नित्य है। भाव की अपेक्षा से वह वर्ण, गंध, रस व स्पर्श से युक्त है। गुण की दृष्टि से ग्रंथ में पुद्गल का लक्षण 'ग्रहण' रूप स्वीकार किया है- गहणलक्खणे णं पोग्गलऽस्थिकाए - (13.4.28)।
पुद्गल की उक्त परिभाषा से उसका गुणात्मक स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। छः द्रव्यों में पुद्गल ही ऐसा अजीव द्रव्य है जो वर्णादिगुणों से युक्त होने के कारण रूपी माना गया है। स्पर्श, रस, वर्ण तथा गंध ये चारों गुण पुद्गल द्रव्य में अनिवार्यतः विद्यमान रहते हैं चाहे वह पुद्गल हमारे लिए दृश्य हो या अदृश्य हो। इन चारों गुणों के कारण ही पुद्गल द्रव्य इन्द्रियगाह्य अर्थात् मूर्त व रूपी होता है। उक्त परिभाषा में पुद्गल को अवस्थित लोक द्रव्य कहा गया है। इससे तात्पर्य है कि पुद्गल द्रव्य लोक में ही अवस्थित है लोक के बाहर नहीं है। पुद्गल का लक्षण ग्रहण बताया गया है क्योंकि एक ओर तो पुद्गल द्रव्यों का परस्पर ग्रहणबंध होता है दूसरी ओर औदारिकादि अनेक पुद्गलों के साथ जीव का ग्रहण (बंध) होता है। वर्णादि गुणों के भेद-प्रभेद
भगवतीसूत्र में प्रतिपादित पुद्गल की परिभाषा में वर्ण, गंध, रस व स्पर्श को पुद्गल के प्रमुख गुण माने हैं। अर्थात् कोई भी पुद्गल द्रव्य चाहे वह दृश्यमान हो या अदृश्यमान ये गुण उसमें आवश्यक रूप से मौजूद रहते हैं। यह बात अवश्य
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन