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रूपी-अजीवद्रव्य (पुद्गगल)
अजीवद्रव्य
साधारण भाषा में तो अजीव द्रव्य से तात्पर्य जीव द्रव्य के विपरीत लक्षण वाले द्रव्य से है। जैनागमों' में अजीव द्रव्य को जीव द्रव्य का प्रतिपक्षी कहा गया है। पंचास्तिकाय में कहा गया है कि जीव द्रव्य चेतनामय व ज्ञान-दर्शन उपयोगवाला है। शरीर में जो ज्ञानवान पदार्थ है, जो सभी को देखता है और सुख-दुःख का अनुभव करता है, वह जीव द्रव्य है और जिसमें चेतन गुण का पूर्ण अभाव है, वह अचेतन पदार्थ, अजीव द्रव्य है। द्रव्यसंग्रह टीका' में अजीव का स्वरूप स्पष्ट करते हए कहा गया है कि चेतना व उपयोग जहाँ नहीं है वह अजीव होता है। सर्वार्थसिद्धि में अजीव का लक्षण बताते हुए कहा है कि धर्मादि द्रव्यों में जीव का लक्षण (चेतना) नहीं पाया जाता है इसलिए उनकी अजीव सामान्य संज्ञा है।
भगवतीसूत्र में अजीव द्रव्य के दो भेद किये हैं; 1. रूपी-अजीवद्रव्य 2. अरूपी-अजीवद्रव्य। पुनः रूपी-अजीव द्रव्य के चार तथा अरूपी-अजीव द्रव्य के पाँच, सात व दस भेद भी किये हैं, किन्तु मुख्य रूप से रूपी-अजीव द्रव्य में पुद्गल तथा अरूपी-अजीवद्रव्य में धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्य समाहित होते हैं। इसी क्रम में इनका विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। रूपी-अजीवद्रव्यः पुद्गल ___ जैन दर्शन में मान्य छ: द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य ही एकमात्र ऐसा द्रव्य है जो रूपी है। रूपी द्रव्य से तात्पर्य है, जिसमें रूपादि गुणों का सद्भाव हो। रूपी द्रव्य को 'मूर्त' भी कहा जाता है। वस्तुतः विज्ञान में जिसे 'मेटर' कहा है उसी को जैन दर्शन में 'पुद्गल' की संज्ञा दी गई है। जैन दर्शन का 'पुद्गल' शब्द आधुनिक विज्ञान के मेटर (जड़तत्त्व) के साथ सादृश्यता रखता है। दूसरे शब्दों में जैन दर्शन के इस पुद्गल की तुलना विज्ञान में मेटर से, न्याय-वैशेषिक के 'भौतिक तत्त्व' से अथवा सांख्य के 'प्रकृति तत्त्व' से की जा सकती है। बौद्ध दर्शन में पुद्गल शब्द आलय-विज्ञान-चेतना सन्तति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन