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संबंध से होने वाले पुद्गलपरिवर्त्त अनंतानन्त होते हैं। पुद्गलपरिवर्त्त की अनंतता को भगवतीवृत्ति में इस प्रकार समझाया गया है। एक ही परमाणु अनन्ताणुकांत, व्यणुकादि द्रव्यों के साथ संयुक्त होकर अनन्त परिवत्र्तों को प्राप्त करता है। इस प्रकार प्रत्येक परमाणु के अनंत परिवर्त्त होते हैं। चूंकि परमाणु भी अनंत हैं अतः इस दृष्टि से पुद्गलपरिवर्त भी अनंतानंत हो गये हैं। भगवतीसूत्र में 7 प्रकार के पुद्गलपरिवर्त्त बताये गये हैं
1. औदारिक-पुद्गलपरिवर्त, 2. वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्त्त, 3. तैजसपुद्गलपरिवर्त्त, 4. कार्मण-पुद्गलपरिवर्त, 5. मन-पुद्गलपरिवर्त, 6. वचनपुद्गलपरिवर्त्त, 7. आनप्राण-पुद्गलपरिवर्त। भगवतीसूत्र के बारहवें शतक के चौथे उद्देशक में भिन्न-भिन्न दृष्टियों से इन पर विस्तार से चर्चा की गई है। परमाणु
जैन दर्शन का परमाणुवाद न केवल प्राचीनतम है वरन् अन्य दर्शनों की अपेक्षा मौलिक भी है। जैन परमाणुवाद का संबंध भगवान् पार्श्व के समय से ही माना जाता है। जैन परम्परा इस बात को स्वीकार करती है कि भगवान् महावीर ने द्रव्यविषयक किसी नये सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं किया अर्थात् उन्होंने पार्श्व की परम्परा को ही आगे बढ़ाया है। कुछ विद्वानों का मत है कि भारत में परमाणुवाद यूनान से आया है। यूनान में परमाणुवाद के जन्मदाता डिमोक्रिट्स माने जाते हैं। डिमोक्रिट्स का समय ई. पू. 460-371 है जबकि पार्श्व का समय ई. पू. 850 माना गया है। इस दृष्टि से जैन परमाणुवाद प्राचीन सिद्ध होता है। शिवदत्त ज्ञानी का मत है कि परमाणुवाद वैशेषिक दर्शन की विशेषता है। उसका प्रारम्भ उपनिषदों से होता है। जैन, आजीविक आदि द्वारा भी उनका उल्लेख किया गया है, किन्तु कणाद ने उसे व्यवस्थित रूप दिया है। तटस्थ दृष्टि से देखा जाय तो वैशेषिकों का परमाणुवाद जैन परमाणुवाद से पहले का प्रतीत नहीं होता है और न जैनों की तरह वैशेषिकों ने उसके विभिन्न पहलुओं पर वैज्ञानिक प्रकाश भी डाला है। विद्वानों ने माना है कि भारतवर्ष में परमाणुवाद के सिद्धान्त को जन्म देने का श्रेय जैनदर्शन को मिलना चाहिये ।3 डॉ. महेन्द्रमुनि ने अपने लेख में परमाणु के ऐतिहासिक क्रम को इस प्रकार प्रस्तुत किया है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ
877-777 ई.पू. तीर्थंकर महावीर
499-427 ई.पू. डिमोक्रिट्स
420 ई. पू. वैशेषिक
महर्षि कणाद
रूपी-अजीवद्रव्य (पुद्गल)
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