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स्पष्ट है कि परमाणुवाद के जन्मदाता जैन ही रहे हैं। परमाणु की परिभाषा एवं स्वरूप
प्राचीन दार्शनिक जैन ग्रंथों में परमाणु के स्वरूप आदि पर विवेचन प्रस्तुत किया गया है। परमाणु शब्द परम + अणु इन दो शब्दों से मिलकर बना है। परम का अर्थ है- अंतिम व अणु का अर्थ है- किसी पदार्थ का छोटा भाग। इस तरह शाब्दिक दृष्टि से अजीवद्रव्य पुद्गल का सबसे छोटा अंतिम भाग परमाणु कहलाता है। पंचास्तिकाय34 में परमाणु की परिभाषा देते हुए आचार्य कुंदकुंद ने कहा हैसमस्त स्कंधों का जो अन्तिम भेद है उसे परमाणु जानो। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने परमाणु को अविभाजित मानते हुए कहा है कि अणु व परमाणु के प्रदेश नहीं होते हैं। आचार्य तुलसी० ने परमाणु की परिभाषा देते हुए परमाणु को अविभाज्य कहा है; अर्थात जो टूट न सके, जिसका विभाग न हो सके ऐसा अविभाजित पुद्गल परमाणु कहलाता है।
भगवतीसूत्र जैन दर्शन साहित्य का प्राचीनतम ग्रंथ है। पुदगल के साथ-साथ इस ग्रन्थ में परमाणु के संबंध में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। परमाणु का स्वरूप, निर्माण, प्रकार, उनमें गति आदि सभी पहलुओं पर भगवतीसूत्र में विवेचन हुआ है। चूंकि भगवती का परमाणुवाद अत्यंत ही विस्तृत है अतः कुछ प्रमुख बिन्दुओं के आधार पर भगवतीसूत्र के परमाणुवाद का आकलन यहाँ किया जा रहा है।
भगवतीसूत्र7 में परमाणु को एक वर्ण, एक गंध, एक रस व दो स्पर्श वाला बताया है। एक वर्णवाला है तो कदाचित् काला, नीला, लाल, पीला या श्वेत होगा। एक गंध में या तो सुगंध वाला होगा या दुर्गंध वाला होगा। एक रस युक्त है तो तीखा, कड़वा, कसैला, खट्टा या मीठा होगा। यदि स्पर्शवाला है तो शीत व उष्ण में से एक तथा स्निग्ध व रूक्ष में से एक अर्थात् उष्ण-रूक्ष, उष्ण-स्निग्ध, शीत-रूक्ष या शीत-स्निग्ध स्पर्श से युक्त होगा। पंचास्तिकाय38 में आचार्य कुंदकुंद ने भी परमाणु के इसी स्वरूप का समर्थन करते हुए कहा है कि जिसमें एक रस, एक रूप, एक गंध और दो स्पर्श गुण रहते हैं, जो शब्द की उत्पत्ति में कारण है, पर स्वयं अशब्द है, स्कंध रूप से परिणमन करते हैं, उसे द्रव्य परमाणु जानो। परमाणु का स्वरूप
भगवतीसूत्र में परमाणु का स्वरूप बताते हुए उसे अछेद्य, अभेद्य, अनार्द्र, अद्राह्य व अविभाज्य माना है। परमाणु पुद्गल तलवार या उस्तरे की धार पर बिना
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन