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इसमें जम्बूद्वीप में विभिन्न दिशाओं-विदिशाओं से सूर्य के उदय-अस्त की एवं दिन-रात्रि की प्ररूपणा की गई है। चौथे उद्देशक में छद्मस्थ और केवली की शब्द श्रवण संबंधी सीमा, हास्य-उत्सुकता, निद्रा, प्रचला आदि का विवेचन है। इसी उद्देशक में हरिनैगमेषी द्वारा गर्भापहरण की घटना का उल्लेख है। इस शतक में अतिमुक्तकुमार का संक्षिप्त जीवन चरित्र भी वर्णित है। अतिमुक्तकुमार द्वारा पानी में नौका तैराने की बालचेष्टा के प्रसंग पर भगवान् महावीर द्वारा स्थविर मुनियों की शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि अतिमुक्तकुमार मुनि इसी भव में मोक्ष प्राप्त करेंगे। पाँचवां उद्देशक ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें इस अवसर्पिणी काल में हुए कुलकरों, तीर्थंकरों आदि श्लाका पुरुषों का विवेचन हुआ है। सातवें उद्देशक में परमाणु व स्कन्ध संबंधी विवेचन है। काल की अपेक्षा से परमाणु का विवेचन करते हुए कहा गया है कि परमाणु पुद्गल जघन्य एक समय तक रहता है, उत्कृष्ट असंख्यकाल तक रहता है। उसके बाद उसमें अवश्य परिवर्तन होता है। आठवें उद्देशक में निग्रंथ पुत्र अनगार एवं नारद पुत्र अनगार के बीच संवाद का वर्णन है।
छठा शतक- छठे शतक में वेदना का निरूपण करते हुए जीवों में महावेदना व अल्पनिर्जरा तथा अल्पवेदना व महानिर्जरा को दृष्टांतों द्वारा समझाया गया है। अबंध, जीव के प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी होने आदि पर विचार किया गया है। आगे तमस्काय के तेरह नाम, आठ कृष्णराजियाँ, सात नरक पृथ्वियों, औपमिक काल के दो प्रकार पल्योपम व सागरोपम, लवणादि असंख्यात्-द्वीप-समुद्रों का स्वरूप व प्रमाण, कर्मादि का वर्णन है। इसी शतक में चैतन्य को जीव से अभिन्न बताते हुए कहा गया है कि जीव चैतन्य स्वरूप है तथा जो चैतन्य है वह भी निश्चित रूप से जीव है। __सातवां शतक- सातवें शतक में दस उद्देशक हैं। इस शतक में लोक के संस्थान का निरूपण करते हुए उसे सुप्रतिष्ठिक आकार का बताया है। इसके पश्चात् श्रमणोपाश्रय में बैठकर सामायिक करने वाले श्रमणोपासकों को लगने वाली क्रिया, अतिचार, सिद्ध जीवों में ऊर्ध्व गति, सुप्रत्याख्यानी व दुष्प्रत्याख्यानी के स्वरूप का वर्णन है। इस शतक में वनस्पति-कायिक जीवों पर विस्तार से विवेचन किया गया है। आलू, मूली आदि वनस्पतियों को अनन्त जीव वाली बताया है। संसारी जीव के छ: भेद खेचर के तीन भेद, जीवों के सातावेदनीय व असातावेदनीय कर्मबंध, छठे आरे में भारतवर्ष के आचार, आकार, भारतवर्ष के
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन