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द्रव्य दृष्टि से उसका स्वरूप तीनों कालों में एक सा रहता है, इसलिए वह नित्य है और पर्याय रूप से वह भिन्न-भिन्न रूपों में परिणत होता रहता है अतः वह अनित्य
प्राचीन जैन आगमग्रंथों में जीव के स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। प्रथम आगम ग्रंथ आचारांग10 में आत्मा के स्वरूप का निरूपण करते हुए आत्मा को अरूपी, तर्क व बुद्धि से परे, ज्ञाता व अपदस्त बताया गया है। स्थानांगसूत्र में जीव का स्वरूप चेतनामय स्वीकार किया गया है तथा उसे ज्ञान-दर्शन उपयोग के लक्षण वाला बताया है। उत्तराध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप व वीर्य को आत्मा के लक्षण माने हैं। पंचास्तिकाय13 में आचार्य कुंदकुंद ने आत्मा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा है कि आत्मा जीव है, चैतन्य है, उपयोग वाला है, स्वकृत कर्मों का स्वामी है, पाप-पुण्यरूप कर्मों का कर्ता एवं उन कर्मफलों का भोक्ता, शरीर-प्रमाण, अमूर्तिक व कर्म संयुक्त है। भावपाहुड14 में उन्होंने आत्मा को अरस, अरूप, अंगध, अव्यक्त, अशब्द व चेतन गुण वाला कहा है। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने उपयोग को आत्मा का लक्षण स्वीकार किया है- उपयोगो लक्षणम् - (2.8)। द्रव्यसंग्रह में आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने आत्मा का स्वरूप इस प्रकार बताया है- जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो।भोक्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्डगई। - (गा-2) अर्थात् जीव उपयोगवान है, अमूर्त है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण है, संसारी है, सिद्ध है तथा स्वभाव से ऊर्ध्व गति करने वाला है। आधुनिक आचार्यों में आचार्य तुलसी ने अपनी पुस्तक जैन सिद्धान्त दीपिका में उपयोग को आत्मा का स्वरूप माना है। उपयोगलक्षणो जीव-(2.2)। आगे उपयोग को उन्होंने चेतना का व्यापार कहा है- चेतनाव्यापारः उपयोग - (2.3)। इस प्रकार जैनागमों में तथा परवर्ती जैनाचार्यों द्वारा दी गई परिभाषाओं में उपयोग व चेतना को जीव का प्रमुख लक्षण माना है। ऐसा प्रतीत होता है कि उपयोग व चेतना दोनों ही समानार्थक हैं। चेतना जीव की योग्यता है एवं उपयोग उस योग्यता की क्रियान्विति है। यही लक्षण जीव-द्रव्य को अजीव-द्रव्य से पृथक् करता है। भगवतीसूत्र में जीव की परिभाषा एवं स्वरूप
भगवतीसूत्र में जीव की परिभाषा देते हुए कहा है- अवण्णे अगंधे अरसे अफासे अरूवी जीवे सासते अवट्ठिते लोगदव्वे - (2.10.5) अर्थात् जीवद्रव्य वर्ण, रस, गंध, स्पर्शादि से रहित होने के कारण अरूपी है। जीव (चैतन्य) स्वरूप
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन