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है। शाश्वत है। अवस्थित लोकद्रव्य है अर्थात् लोकाकाश के बराबर है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व गुण की अपेक्षा से जीवास्तिकाय को संक्षेप में पांच प्रकार का बताया गया है- से समासओ पंचविह पण्णत्ते; तंजहा-दव्वत्तो-जाव गुणतो -(2.10.5)।
द्रव्य की अपेक्षा से जीवास्तिकाय अनन्त जीवद्रव्यरूप है। क्षेत्र की अपेक्षा से लोक प्रमाण है अर्थात् जीवास्तिकाय के उतने ही प्रदेश माने गये हैं, जितने कि लोकाकाश के प्रदेश हैं। काल की अपेक्षा से वह कभी नहीं था ऐसा नहीं है, कभी नहीं है ऐसा नहीं, कभी नहीं होगा ऐसा नहीं, अतः भूत, भविष्य व वर्तमान में उसकी सत्ता है इसलिए उसे नित्य माना है। भाव की अपेक्षा वर्ण, गंध, रस व स्पर्श का अभाव होने के कारण वह अमूर्त माना गया है। वास्तव में निश्चयनय की अपेक्षा से तो सभी जीव अमूर्त ही है, किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से कर्मों से बद्ध संसारी जीवों को मूर्त माना गया है। गुण की अपेक्षा से उसे उपयोग गुण वाला माना गया है। ग्रंथ में अन्यत्र जीव को परिभाषित करते हुए उसे अक्षत, अनादिनिधन, ध्रुव, नित्य व अविनाशी बताया गया है। चेतनामय जीव
भगवतीसूत्र” में जीव के पर्यायवाची शब्दों में 'चेया' शब्द का उल्लेख किया गया है। अन्यत्र चेतना व जीव में तादात्म्य स्थापित करते हुए चैतन्य को ही जीव मान लिया गया है- जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे - (6.10.2) अर्थात् जो जीव है वह निश्चित रूप से चैतन्य स्वरूप है तथा जो चैतन्यस्वरूप है, वह भी निश्चित रूप से जीव है। स्थानांगसूत्र18 में भी जीव को चेतनामय स्वीकार किया गया है। प्रवचनसार' में आचार्य कुंदकुंद ने जीव का लक्षण चेतना माना है। द्रव्यसंग्रह में जीव के लिए 'चेदा' शब्द का प्रयोग हुआ है। वहाँ कहा गया है कि निश्चयनय की दृष्टि से त्रिकाल में चेतना जिसके प्राण है, वह जीव है।
जीव व चैतन्य की अभिन्नता को स्वीकार करते हुए भगवतीसूत्र में चेतना के अस्तित्व की सिद्धि के लिए भी कई जगह प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं। कहा गया है कि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार-पराक्रम से युक्त जीव आत्मभाव से चैतन्य को प्रकट करता है। जीव में चेतना का अस्तित्व होता है इसलिए वह विभिन्न प्रकार की गति करता है। जीव सदा समित (मर्यादित) रूप से कांपता है, विविध रूप में कांपता है, चलता है, स्पन्दन क्रिया करता है,
जीव द्रव्य