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का फल भोगे बिना उसे मोक्ष नहीं होता है । समयसार में आचार्य कुंदकुंद ने कहा है कि व्यवहार नय से आत्मा अनेक पुद्गल कर्मों का कर्ता अनेक कर्म पुद्गलों का भोक्ता है। प्राचीन जैन ग्रंथों से ही नहीं उपनिषदों से प्राप्त जीवविचार से भगवतीसूत्र की इस मान्यता का समर्थन होता है कि जीवात्मा फल के लिए कर्मों का कर्ता है और किये हुए कर्मों का भोक्ता भी है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र में जीव में कर्तृत्व व भोक्तृत्व दोनों भाव स्वीकार किये गये हैं । संभवतः उस समय कुछ ऐसी मान्यताएँ प्रचलित रही होंगी जो इस बात में विश्वास करती थीं कि कर्मों का कर्ता कोई और तथा भोक्ता कोई और है। यदि ईश्वर की कृपा हो जाय तो व्यक्ति को अपने दुष्कर्मों का फल ही नहीं भोगना पड़ेगा । किन्तु, भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने इन भ्रांत मान्यताओं का निरासन करते हुए इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है कि जीव स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता है उन्हीं कर्मों के परिणामानुसार वह सुख-दुःख को भोगेगा ।
स्वदेह परिमाण
जीव या आत्मा के परिमाण को लेकर दार्शनिकों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये हैं । इस संबंध में प्राय: दर्शनों में मतभेद हैं । सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि दर्शन आत्मा को अमूर्त होने के कारण आकाश की तरह सर्वव्यापक मानते हैं। गीता में भी आत्मा की सर्व व्यापकता को स्वीकार किया गया है । कुछ वेदान्तवादी, माधवाचार्य आदि ने आत्मा को अणु रूप में स्वीकार किया है। 39
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भगवतीसूत्र में आत्मा को न सर्वव्यापक माना है न अणुपरिमाण वरन् अन्य जैन ग्रंथों की तरह स्वदेह - परिमाण स्वीकार किया गया है । जीव की स्वदेहपरिमाण योग्यता को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए ग्रंथ में कहा है कि हाथी कुंथुए का जीव समान होता है । यद्यपि उनमें शरीरों का अन्तर है । हाथी का शरीर बड़ा व कुंथुए का शरीर छोटा होता है, किन्तु सभी जीव समान रूप से असंख्यात प्रदेश वाले होते हैं। शरीर के आकार के अनुसार ही जीव के प्रदेशों का संकोचन व विस्तार होता रहता है । इसे दीपक के दृष्टान्त द्वारा इस प्रकार समझाया गया है। जैसे - एक दीपक का प्रकाश एक कमरे में फैला हुआ है और उसे किसी बर्तन से ढक दिया जाय तो वह प्रकाश बर्तन - परिमित हो जाता है, इसी प्रकार जब जीव हाथी का शरीर धारण करता है तो वह उतने बड़े शरीर में व्याप्त रहता है। इस प्रकार छोटे-बड़े शरीर का ही अन्तर रहता है, जीव में कुछ भी अन्तर नहीं है।
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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