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स्थावर जीव
इनमें से पृथ्वीकायिक आदि प्रथम पाँच प्रकार के जीव चलने-फिरने की शक्ति से रहित होने के कारण स्थावर कहलाते हैं । तत्त्वार्थसूत्र में पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों को स्थावर तथा तेजस्काय व वायुकाय के जीवों को द्वीन्द्रियादि के साथ त्रस की श्रेणी में रखा है- तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसा (2.14)। विवेचन में इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि यद्यपि स्थावर नाम कर्म के उदय के दृष्टिकोण से तो ये जीव असल में स्थावर ही हैं, किन्तु यहाँ द्वीन्द्रिय आदि के साथ सिर्फ गति का सादृश्य देखकर उन्हें त्रस कहा गया है। त्रस के दो भेदों में त्रस नाम-कर्म के उदय वाले को लब्धित्रस कहा गया है, वे ही मुख्य रूप से त्रस हैं; जैसे द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव । स्थावर नाम कर्म का उदय होने पर भी त्रस की सी गति होने के कारण जो त्रस कहलाते हैं वे गतिस हैं। ये उपचार मात्र से त्रस हैं, जैसे वायुकायिक व तेजस्कायिक |
भगवतीसूत्र में एकेन्द्रिय स्थावर जीवों का विवेचन बहुत विस्तार से किया गया है । पन्द्रहवें शतक तथा तेतीसवें शतक में उनके विभिन्न प्रकारों पर प्रकाश डाला गया है। इसके आधार पर इनका संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है।
पृथ्वीकायिक- पृथ्वी ही जिन जीवों का शरीर है, वे पृथ्वीकायिक जीव कहलाते हैं। यथा पृथ्वी, शर्करा, बालुका, उपल, शिला, लवण, सूर्यकांत आदि । सूक्ष्म व स्थूल के भेद से पृथ्वीकायिक जीवों के भेद-प्रभेद किये गये हैं। 1. सूक्ष्मपृथ्वीकायिक, 2. बादरपृथ्वीकायिक
पुनः इनके पर्याप्त व अपर्याप्त की दृष्टि से दो-दो प्रभेद किये गये हैं1. पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक 2. अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक
3. पर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक 4. अपर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक
अप्कायिक जीव- जल ही जिन जीवों का शरीर है, वे अप्कायिक जीव कहलाते हैं। यथा- ओस का पानी, हिम, ओले, शीतोदक, उष्णोदक, खाई का पानी आदि। इसके चार भेद हैं
1. पर्याप्त सूक्ष्मअप्कायिक
2. अपर्याप्त सूक्ष्मअप्कायिक 3. पर्याप्त बादर अप्कायिक 4. अपर्याप्त बादरअप्कायिक
तेजस्कायिक जीव- अग्नि ही जिन जीवों का शरीर है, वे जीव तेजस्कायिक कहलाते हैं। यथा- अंगार, ज्वाला, उल्का, विद्युत, शुद्धाग्नि, अलाव, सूर्यकांतमणि निःसृत अनि आदि । इसके भी चार भेद हैं ।
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन