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होती है अन्यथा ये अनन्त संसार में भटकते रहते हैं। देवों के तेजस, कार्मण व वैक्रिय शरीर होते हैं। चार कषाय, चार संज्ञाएँ, पाँच इन्द्रियाँ व पाँच समुद्घात होते हैं। देवों के भेद-प्रभेद
देवों को प्रमुख रूप से चार भागों में विभक्त किया गया है
1. भवनवासी, 2. वाणव्यन्तर, 3. ज्योतिष्क, 4. वैमानिक __ भवनवासी देव- भवनों में रहने वाले देव भवनवासी कहलाते हैं। आहारविहार, वेष-भूषा आदि में राजकुमारों के समान होने के कारण ये 'कुमार' भी कहे जाते हैं। इनके दस प्रकार इस प्रकार गिनाये गये हैं
1. असुर कुमार, 2. नाग कुमार, 3. सुपर्णकुमार, 4. विद्युतकुमार, 5. अग्निकुमार, 6. द्वीपकुमार, 7. उदधिकुमार, 8. दिशाकुमार, 9. पवनकुमार, 10 स्तनित कुमार
इनका निवास स्थान अधोलोक की प्रथम 'रत्नप्रभा पृथ्वी' का मध्यभाग माना गया है। ग्रंथ116 में असरकुमार आदि देवों की स्थिति, आहार, श्वासोच्छ्वास आदि के संबंध में विवेचन किया गया है।
वाणव्यन्तर देव- नगरों, भवन, आवासों आदि विविध स्थानों में स्वेच्छापूर्वक विचरण करने तथा पर्वत, वृक्ष, वन आदि स्थलों पर निवास करने के कारण ये वाणव्यन्तर या वनचारी देव कहलाते हैं। ये तीनों लोकों में भ्रमण करते हैं। इनके आठ प्रकार बताये गये हैं- 1. किन्नर, 2. किम्पुरुष, 3. महोरग, 4. गन्धर्व, 5. यक्ष, 6. राक्षस, 7. भूत, 8 पिशाच। ये देव जिन पर प्रसन्न हो जाते हैं उनकी रक्षा व सेवा आदि भी करते हैं। ____ज्योतिष देव- अपने ज्योतिष रूप से जगत को प्रकाशित करने के कारण ये ज्योतिष देव कहलाते हैं। इनके पाँच भेद हैं- 1. सूर्य, 2. चन्द्र, 3. ग्रह, 4. नक्षत्र, 5. तारा। इन देवों में से कुछ स्थिर हैं व कुछ गतिमान हैं। मनुष्य क्षेत्र में ज्योतिष देव गतिमान हैं। इनके गमन से ही घड़ी, घंटा आदि रूप से समय का ज्ञान होता है। मनुष्य क्षेत्र के बाहर ये देव अचर हैं। भगवतीसूत्र में सूर्य व चन्द्र को ज्योतिष देवों का इन्द्र स्वीकार किया गया है। उनके काम भोगों को अन्य देवों की तुलना में अनन्तगुणा विशिष्टत्तर बताया गया है।117
वैमानिक देव- विशेष सम्माननीय होने के कारण ये ऊर्ध्वलोक के विमानों में रहते हैं इसलिए 'वैमानिक' कहे जाते हैं। ये दो प्रकार के हैं
1. कल्पोत्पन्न वैमानिक देव, 2. कल्पातीत वैमानिक देव।
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भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन