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1. सूक्ष्म अपर्याप्तक, 2. सूक्ष्म पर्याप्तक, 3. बादर अपर्याप्तक, 4. बादर पर्याप्तक, 5. द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, 6. द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, 7. त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, 8. त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, 9. चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक, 10. चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक 11. असंज्ञी पंचेद्रिय अपर्याप्तक, 12. असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, 13. संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, 14. संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक
ज्ञानेन्द्रिय की अपेक्षा से- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु तथा कर्ण ये पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ मानी गई हैं। इनमें से जो जीव सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय से युक्त है वह एकेन्द्रिय जीव, स्पर्शन व रसना से युक्त जीव द्वीन्द्रिय, स्पर्शन, रसना व घ्राण से युक्त त्रीन्द्रिय, स्पर्शन, रसना, घ्राण व चक्षु से युक्त चतुरिन्द्रिय और स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु व कर्ण से युक्त पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं।
__गति की दृष्टि से- जन्म संबंधी जीव की चार पर्यायें हैं, जिन्हें गति कहा गया है। यहाँ गति से तात्पर्य अवस्था विशेष में गमन करना है। इस गति भेद की दृष्टि से जीव के चार प्रकार बताये गये हैं। 1. देव, 2. मनुष्य, 3. नारक, 4. तिर्यंच। इनका विवेचन किया जा चुका है।
संदर्भ
1. मज्झिमनिकाय, 1.38 2. सांख्यकारिका, 19
डॉ. राधाकृष्णन.- भारतीय दर्शन (भाग-2), पृष्ठ 148-149 'जीवे णं भंते ! सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कारपरक्कमे आयभावेण जीवभावं उवदंसेतीति'- व्या.सू. 2.10.9 षड्दर्शनसमुच्चय टीका, 49.120 'यथा यंत्रप्रतिमाचेष्ठितं...साधयति'- सर्वार्थसिद्धि, 5.19.563
गणधरवाद, 1560, 62 8. शास्त्री, देवेन्द्र मुनि- जैन दर्शन स्वरूप और विश्रूषण, पृ. 120 9. वही, पृ. 87-89
आचारांग, सम्पा. मुनि मधुकर, 1.5.6.176 11. स्थानांग, मुनि मधुकर, 2.1.1 पृ. 24 12. णाणं च दंसण चेव चारित्तं च तवो तहा।
वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ।।- उत्तराध्ययन, 28.11 13. पंचास्तिकाय, गा. 27 14. भावपाहुड, गा. 64 पृ. 167 15. 'गुणतो उवयोगगुणे'- व्या.सू. 2.10.5 16. 'सासए जीवे जमाली ! जणं न कयावि णासि जाव णिच्चे।' वही, 9.33.101