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(जीवाजीवाभिगम, 31) सभी जीवों में पंचेन्द्रिय जीवों की प्रधानता होने के कारण इनके चारों प्रकार का विशेष विवेचन किया जा रहा है। पंचेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद
गति की दृष्टि से पंचेन्द्रिय जीवों को चार भागों में विभाजित किया गया है1. नैरयिक, 2. तिर्यंच, 3. मनुष्य, 4. देव।
नैरयिक- जो पाप कर्मों के कारण दुःख झेलते हैं तथा अधोलोक में उत्पन्न होते हैं, उन्हें नारकी या नैरयिक जीव कहते हैं। जब पापों का पुंज अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाता है तब जीव नरक में जाकर उत्पन्न होता है। नरक गति के जीवों के परिणाम व लेश्या अशुभतर होती है। ये अधोलोक में निवास करते हैं। नारक जीव नपुंसक व उपपात जन्म वाले होते हैं। ग्रंथ में सात नरक पृथ्वियों के नाम व गोत्र इस प्रकार बताये हैं104
गोत्र-1. रत्नप्रभा, 2. शर्कराप्रभा, 3. बालुकाप्रभा, 4. पंकप्रभा, 5. धूमप्रभा, 6. तमःप्रभा, 7. महातमप्रभा
नाम- 1. धम्मा, 2. वंसा, 3. सीला, 4. अंजणा, 5. रिद्धा, 6. मघा, 7. माघवई
भगवतीसत्र105 में नारक जीवों के विषय में बहत अधिक विस्तार से विवेचन किया गया है। सातों नारकवासियों की संख्या, विशालता, विस्तार, अवकाश, स्थानरिक्तता, प्रवेश, संकीर्णता, व्यापकता, कर्म, क्रिया, आस्रव, वेदन, ऋद्धि, द्युति, आदि विषयों में एक दूसरे से तरतमता का वर्णन भी किया गया है। नारकों की वेदना का वर्णन करते हुए कहा गया है कि नैरयिकों के पापकर्म गाढ़ीकृत चिकने व शृिष्ट होते हैं अतः वे महान वेदना को वेदते हैं, उनके निर्जरा कम होती है। उनके मन, वचन, काय व कर्म ये चार अशुभकरण होते हैं, जिससे ये असाता वेदना वेदते हैं।106 उनके तीन शरीर होते हैं वैक्रिय, तैजस व कार्मण।107 नारकों की लेश्या विवेचन में कहा गया है कि पहली व दूसरी नरक पृथ्वी में कापोत लेश्या, तीसरी नरक पृथ्वी में कापोत व नील लेश्या, चौथी में नील लेश्या, पाँचवी में नील व कृष्ण लेश्या, छठी में कृष्ण लेश्या व सातवीं नरक में परमकृष्ण लेश्या होती है।108 नैरयिकों की स्थिति श्वासोच्छ्वास व आहर की प्ररूपणा करते हुए ग्रंथ109 में कहा गया है कि नैरयिकों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष तथा उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है। ये सतत, सदैव व निरन्तर श्वासोच्छ्वास लेते व छोड़ते हैं। नैरयिकों के आहार को दो प्रकार का बताया गया है। आभोगनिर्वर्तित (खाने की बुद्धि से
जीव द्रव्य
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