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जीव का एक भेद7- चैतन्य को जीव का स्वरूप मानते हुए जीव व चैतन्य को अभिन्न माना गया है। इस दृष्टि से सभी जीवों में एकत्व होने के कारण जीव का एक भेद चेतनामय जीव हुआ। यह भेद द्रव्य दृष्टि से किया गया है।
__ जीव के दो भेद- पर्याय की दृष्टि से जीव के मुख्य दो भेद किये हैंगोयमा! जीवा दुविहा पण्णत्ता; तंजहा-संसारसमावनगा य असंसारसमावन्नगा य - (1.8.10, 1.7.7)।
1. संसारसमापन्नक (संसारी) 2. असंसारसमापन्नक (सिद्ध)
असंसारसमापन्नक (सिद्ध) जीव- जिसने संसार व संसार के प्रपंचों का निरोध कर लिया है, जिसका संसार-वेदनीय कर्म क्षीण व व्युच्छिन्न हो गया, जिसने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है वह निर्ग्रन्थ सिद्ध कहलाता है। भगवतीसूत्र सिद्ध के लिए बुद्ध, मुक्त, पारगत, परम्परागत, परिनिर्वृत्त, अन्तकृत एवं सर्वदुःखप्रहीण आदि शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। सिद्ध जीवों को अवीर्य व केवलज्ञान युक्त कहा है।' कर्मयुक्त सिद्ध जीवों में ऊर्ध्व गति को स्वीकार किया गया है। सिद्ध जीवों की संख्या अनन्त मानी है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि सिद्धों की संख्या घटती नहीं है अवस्थित रहती है या बढ़ती
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द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा से सिद्ध के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है कि द्रव्य से एक सिद्ध अन्तसहित है। क्षेत्र से असंख्यप्रदेशी वाले होने के कारण अन्त सहित है। काल से एक सिद्ध आदि सहित व अन्तरहित है। भाव से सिद्ध अनन्तज्ञान-दर्शनपर्याय-रूप अनन्त-अगुरुलघुपर्यायरूप होने से अन्त रहित है। आचारांग4 और उत्तराध्ययन 5 आदि आगम ग्रंथों में भी सिद्ध के स्वरूप पर विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में मुक्त-जीव की अवस्था को मरण-रहित, व्याधि-रहित, शरीर-रहित, अत्यन्तदुखाभावरूप, निरतिशयसुखरूप, शांत, क्षेमकर, ज्ञानरूप, दर्शनरूप और एकान्त अधिष्ठान-रूप बताया है।
संसार-समापन्नक (संसारी) जीव- जो जीव अपने कर्मों या संस्कारों के कारण नाना योनियों में शरीर को धारण करते हैं तथा मरण रूप से संसरण करते हैं, वे संसारी जीव कहलाते हैं। ग्रंथ में संसारी जीव के छः भेद किये गये हैं- छव्विहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णता - (7.4.2)। ___ 1. पृथ्वीकायिक, 2. अप्कायिक, 3. तेजस्कायिक, 4. वायुकायिक, 5. वनस्पतिकायिक, 6. त्रस कायिक।
जीव द्रव्य
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