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जीव के पर्यायवाची"
जीव के अनेक पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख भगवतीसूत्र में मिलता है। जीव, जीवास्तिकाय, प्राण, भूत, सत्त्व, विज्ञ, चेता, जेता, आत्मा, रंगण, हिण्डुक, पुद्गल, मानव, कर्ता, विकर्ता, जगत, जन्तु, योनि, स्वयम्भू, सशरीरी, नायक एवं अन्तरात्मा, ये सब व इनके समान अन्य अनेक अभिवचन जीव के हैं । भगवती वृत्ति " में इन सभी शब्दों का विवेचन किया गया है। भगवतीसूत्र” में मृतादि निर्ग्रथ के भव- भ्रमण एवं भवान्तकरण के प्रसंग में भगवान् महावीर ने जीवादि कुछ शब्दों की व्याख्या इस प्रकार की है- जीव बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास तथा नि:श्वास लेता है और छोड़ता है, इसलिए उसे 'प्राण' कहना चाहिये । वह भूत, भविष्य और वर्तमान में है इसलिए उसे 'भूत' कहना चाहिये । वह जीव होने से जीता है, जीवत्व एवं आयुष्यकर्म का अनुभव करता है इसलिए, उसे 'जीव' कहना चाहिये । वह शुभ व अशुभ कर्मों से सम्बद्ध है इसलिए, 'सत्व' कहना चाहिये । वह तिक्त, कटु-कषाय, खट्टा और मीठा, इन रसों का वेत्ता (ज्ञाता) है इसलिए, उसे 'विज्ञ' कहना चाहिये तथा वह सुख-दुःख का वेदन करता है, इसलिए उसे 'वेद' कहना चाहिये ।
जीव के प्रदेश
तत्त्वार्थसूत्र” में धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय द्रव्यों की तरह जीव को भी असंख्यात प्रदेश माना है। किन्तु, जीव के प्रदेश बुद्धि कल्पित होते हैं जो वस्तुभूत स्कंध से परमाणु की तरह पृथक् नहीं किये जा सकते हैं । जीव के प्रदेशों का विवेचन करते हुए भगवतीसूत्र” में कहा गया है कि लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने ही एक-एक जीव के जीव प्रदेश हैं। चूंकि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश माने गये हैं। अतः एक जीव के भी असंख्यात प्रदेश हैं । सम्पूर्ण जीवास्तिकाय के अनंत प्रदेश होते हैं । जीव के देश व प्रदेश का पृथक् रूप से उल्लेख करते हुए कहा गया है कि लोकाकाश में जीव भी हैं, जीव के देश भी हैं, जीव के प्रदेश भी हैं - गोयमा ! जीवा वि जीवदेसा वि जीवपदेसा वि - (2.10.11)।
अनन्त जीव द्रव्य
जैन-दर्शन अनेक आत्मा के सिद्धान्त को स्वीकार करता है । जैन दर्शन के मौलिक ग्रंथ 'तत्त्वार्थसूत्र' में 'जीवाश्च' - ( 52 ) सूत्र का प्रतिपादन किया गया है । यह सूत्र जैन-दर्शन के अनेक आत्मवाद सिद्धान्त को पुष्ट करता है । अकलंक" ने 'जीवाश्च' सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा है कि जीवों की अनन्तता और
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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